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श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ]
तेनाहं प्रभूना दत्वा प्राभतं प्रेषितः प्रभो । गृहाण देव पत्रं च शृण त्वम् तेन भाषितम् ॥१६॥
राजस्व आवृणो का बेशरम् मतः । श्रीपाल भूपतिस्सोऽत्राद्यायातस्साधयन्नृपान् ।।२०।
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अन्वयार्थ - - ( प्राभृतं पत्रं च दत्वा ) उपहार रूप सामग्री और पत्र देकर ( तेन प्रभुना ) उस राजा के द्वारा ( प्रभो ) हे प्रभु ! ( बहु प्रेषितः) मैं भेजा गया हूँ ( तेन भाषितं ) उनके द्वारा कहे गये श्राज्ञा रूप बचन को (त्वशृण) तुम सुनो (च) और (देव) हे देव ! ( पत्र गृहाण ) पत्र को ग्रहण करो ( राजन् ) हे राजन् ! ( यः प्रागुत्व भ्रातृजो ) जो पहले तुम्हारा भतीजा था और ( बाल्ये ) बाल्य अवस्था में ( देशान्तरं गतः ) देशान्तर को चला गया था (सो) वह ( साधयन् नृपान् ) अनेक राजाओं को जीतता हुआ ( भूपतिः श्रीपाल ) राजा श्रीपाल ( श्रद्यअत्र आयातः) आज यहाँ आया है।
भावार्थ - उसने कहा हे राजन् ! उस श्रीपाल महाराज ने आपके लिये भेट रूप सामग्री और पत्र देकर मुझे यहाँ भेजा है श्राप उनके आदेश रूप वचन को सुने और उपहार तथा पत्र को ग्रहण करें। वह दूत कहने लगा कि हे भूपति ! जो पहले तुम्हारा भतीजा था और बाल्यकाल में ह्री देशान्तर को चला गया था वह अपने उत्कृष्ट बल, शीघ्र वीर्य से समस्त राजाओं को जीतता हुआ आज यहाँ आया है ॥१६२० ।।
तस्मै तत् पितृ राज्यं त्वं समप्यं तिष्ठ शर्मणा । भृत्य त्वं प्रतिपद्याशु नो चेद् वेशान्तरं व्रज ॥२१॥ इत्यादिकं समाकर्ण्य बचोहरवचोरिवलम् । स वीरदमनप्राह प्रभुः कोपाग्नि दीपितः ॥२२॥
श्रन्वयार्थ - - ( तस्मै ) उस श्रीपाल महाराज को ( तत्पितृ राज्यं समये) उनके पिता के राज्य को समर्पित कर ( त्वं शर्मणा तिष्ठ) तुम सुख पूर्वक ठहरो (आशु ) शीघ्र ( भृत्यप्रतिपद्म) सेवकपने की स्वीकार कर रहो ( नो चेद्) यदि नहीं, तो ( देशान्तरं व्रज ) देशान्तर को गमन करो (वचोहर इत्यादिकं वचारिवलम् ) दूत के इस प्रकार के सम्पूर्ण वचन को सुनकर ( कोग्निदीपितः ) क्रोध से उद्दीप्त हुम्रा प्रज्वलित हुआ ( स प्रभुः बीरदमन) वह राजा वीरदमन (प्राह ) बोला----
मावार्थ- पुनः दूत ने कहा कि आप श्रीपाल महाराज को उनके पिता का राज्य समर्पित कर सुखपूर्वक ठहरे और शीघ्र उनके सेवकत्व को स्वीकार करें अन्यथा देशान्तर को गमन करें । दूत के इस प्रकार के सम्पूर्ण वचनों को सुनकर क्रोध से उद्दीप्त हुआ वह राजा वीरदमन बोला- ॥२१२२