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[ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद कि ते श्रीपाल-कोपाचिः कि ते संन्य तृणोपमम् । एकोऽहं सकलान् शत्रून् जित्वा घोरे रणाङ्गणे ॥२३॥ भास्कर इव तमस्तोमं प्रेषयित्वा यमालयम् ।
श्रीपालं तं करिष्यामि स्वनाम सफलं क्षितौ ॥२४॥ अन्वयार्थ-(ले) उस (श्रीपालकोपात्रिः) श्रीपाल की क्रोधाग्नि (कि) क्या कर सकती है ? (तृणोपमम् ) तृग के समान(ते संन्यं कि) उसको सना क्या कर सकती है ? (घोरे रणाङ्गणे) घोर युद्ध भूमि में (एकोऽहम् ) मैं अकेला (सकलान् श बेन जित्वा) सम्पूर्ण शत्रुनों को जीतकर (तमस्तोमं भास्कर इव) जैसे सूर्य गहन अन्धकार को शीघ्र नष्ट कर देता है उस प्रकार (तं श्रीपाल) उस श्रीपाल को (यमालयम्) यमालय को (प्रेषयित्वा) भेज कर (क्षिती) पृथ्वी पर (स्वनाम) अपना नाम (सफल करिष्यामि ) सफल करूंगा ।।२३ २४।।
भावार्थ -हे श्रीपाल का बचोहर दूत ! उस श्रीपाल की अल्प क्रोधाग्नि मेरा क्या कर सकती है ? और तृण के समान शक्तिहीन उसकी सेना भी मेरा क्या कर सकती है ? जैसे सुर्य, सघन अन्धकार को भी शीघ्र नष्ट कर देता है उसी प्रकार मैं अकेला ही युद्ध भूमि में सम्पूर्ण शत्रुओं को जीतकर और उस श्रोपाल को तत्काल यमालय में भेजकर अपनो यशोकोति से इस पृथ्वी को व्याप्त कर दूंगा अथवा पृथ्वी पर अपना नाम सफल करूंगा।
तन्निशम्य पुनर्दू तो जगावित्थं त्वया प्रभो ।
नियते किं वृथा गर्यो मानभङ्गस्य कारणम् ॥२५॥
अन्वयार्थ-(तन्निशम्य ) राजा वीरदमन के उस वचन को सुनकर (दतो पूनः इत्थं जगौ) दूत ने पुनः इस प्रकार कहा (प्रभो !) हे राजन (वृथा कि गर्यो क्रियते त्वया) तुम व्यर्थ में क्यों ऐसा गर्व करते हो ? जो (मानभङ्गस्य कारणम्) मान भङ्ग का कारण है ।
भावार्थ ---उस दूत ने राजा वीरदमन को कहा कि हे राजन् ! तुम्हारा मिथ्या अहङ्कार मान भङ्ग का कारण है अत: व्यर्थ का अहंकार मत करो। श्रीपाल महाराज की शक्ति की परख करो।।२
अङ्गवनकलिङ्गाद्या गौर्जरामालवादयः। कौकुणाश्च महीपालास्त लङ्गास्सैहलास्तथा ॥२६॥ सेयन्ते त्वत, समास्सर्वे भूपाला बह्वो ध्र वम् ।
श्रीपालनाम-भ पालंपालितारिवलमंडलम् ॥२७॥ अन्वयार्थ---(अङ्गवङ्गकलिङ्गाद्या) अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग आदि देश (तथा )तथा (गौरामालवादयः) गुजरात, मालवादि देश (कौंकुणा: तैलङ्गाः सहला: च) और कौकुण, तेलगु धौर