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________________ ४३२] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छे श्रावक धर्म के भद्र से ( द्विधा विज्ञ यां) दो प्रकार का जानना चाहिये। (स्वर्गमोक्षदः ) स्वग और मोक्ष को देने वाला ( आयो ) प्रथम ( मुनीनां धर्मो) मुनिधर्म ( महाभवेत् ) महान् है । ( सार रत्नत्रयोपेतः ) सारभूत रत्नत्रय से सहित (मूलोत्तरगुणैः युतः ) मूल उत्तर गुणों से सहित ( तस्य भेदाः) उस मुनिधर्म के ( परमागमे ) परमागम में जिनागम में ( वहव: भेदा: सन्ति) बहुत भेद हैं । मावार्य पुनः मुनिराज ने कहा कि हे सुधी ! वह धर्म, सुनिधर्म और श्रावक धर्म के भेद से दो प्रकार का है उनमें स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला प्रथम मुनिधर्म महान् है । सारभूत रत्नत्रय से सहित, मूल उत्तर गुणों से युक्त, उस मुनिधर्म के जिनागम में बहुत भेद हैं । २४। श्रावकानां भवेद्धर्मस्सारस्वर्गादिसौख्यदः । संक्षेपेक्ष प्रवक्ष्यामि तं प्रभो शृण सादरात् ॥२५॥ तत्रादौ च महाभव्यंः पालनीयं जगद्धितम् । जिनोत्तसप्त तत्वानां श्रद्धानं दर्शनं महत् ॥२६॥ श्रन्वयार्थ – (सारस्वर्गादिसांख्यदः ) सारभूत स्वर्गादि सुख को देने वाला ( श्रावकानां धर्मः) श्रावक धर्म ( भवेत् ) होता है ( प्रभो ) हे राजन् ! (संक्षेपेण) संक्षेप में (तं ) उस श्रावक धर्म को ( प्रवक्ष्यामि ) कहता हूँ ( सादरात् शृण) आदर पूर्वक - श्रद्धान पूर्वक सुनो। (तत्रादी) उनमें प्रथमत: ( जगद्धितम् ) जगत् का हित करने वाला (जिनोक्त सप्ततत्त्वानां ) जिनप्रणीत सप्त तत्वों का ( महत् श्रद्धानं ) ढ़ श्रद्धान रूप ( दर्शन ) सम्यग्दर्शन ( महाभव्यः पालनीयम् ) श्रेष्ठ भव्य पुरुषों के द्वारा पालने योग्य है । मावार्थ- पुनः श्रावक धर्म का प्रतिपादन करते हुए मुनिराज कहने लगे कि हे राजन् ! श्रावक धर्म भी सारभूत स्वर्गादि सुख को देने वाला है तुम श्रावक धर्म को मादर पूर्वक सुनो। जिनेन्द्र भगवान ने सात तत्त्व बताये हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इन पर दृढ़ श्रद्वान रखना सम्यग्दर्शन है। "उपयोगो जीवलक्षणम्" जिसमें जानने और देखने की शक्ति है वह जीव है। जिसमें जानने देखने की शक्ति नहीं है ऐसे पुद्गल, धर्मद्रव्य, आकाश और काल द्रव्य अजीव रूप हैं। पुण्यपापागम द्वार लक्षणं आस्रव:" पुण्य और पापरूप कर्मों के आने के द्वार को आसव कहते हैं । आत्मा और कर्म प्रदेशों का दूध और पानी की तरह परस्पर संश्लेष सम्बन्ध को प्राप्त हो जाना बन्ध है । अते हुए कर्मों का रूक जाना संवर है । पूर्ववद्ध कर्मों का एक देश क्षय हो जाना जिरा है और सम्पूर्ण कर्मों का अत्यन्त प्रभाव हो जाना मोक्ष है। इन सात तत्त्वों यथानुरूप र श्रद्धान होना व्यवहार सम्यग्दर्शन है । पर द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मस्वरूप जो रूचि श्रद्धान होता है उसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। सच्चे देवशास्त्र गुरु का श्रद्धान भी सम्यग्दर्शन है। जैसा कि आगे बताया भी है ।। २५, २६ ।। देवोऽर्हन् दोष निर्मुक्तः सद्धर्मो दशधास्मृतः । निग्रन्थोऽसौ गुरुश्चेति श्रद्धासम्यक्त्वमुच्यते ॥ २७॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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