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श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद]
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(सर्वतत्त्वाना भाषिणों) सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने बालो (निर्मलाम) निदोष अर्थात् युक्तिसङ्गत (सर्वसन्देहनाशिनीम) सम्पूर्ण शताओं का निराकरण करने वाली (चन्द्र कान्ति बा) तथा चन्द्रमा की किरणों के समान (शीतला) शीतल (परमाह्लाददायिनीम् ) परमानन्द को देने वाले (शुभां) शुभ, मङ्गलकारी (वाणी सजगाद) वचन कहे।
भावार्थ--श्रेणिक महाराज ने स्तुति और बन्दना पूर्वक विनय के साथ मुनिराज से प्रश्न किया कि हे प्रभ! जिनधर्म का स्वरूप क्या है, वह धर्म कैसा है ? यहाँ, किसके द्वाग प्रथबा किस प्रकार किस विधि से साध्य है ? हे स्वामी ! उसका फल क्या है ? आप ही कहने में समर्थ हो अत: आप धर्मोपदेश देकर हम भव्यजीवों को सन्तुष्ट करें। राजा के उस वचन को सुनकर धर्म के स्वरूप को जानने वाले मुनिकुञ्जर ने सूर्य की किरणों के समान सम्पूण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाली, युक्ति प्रमाण सङ्गत निर्दोष तथा सम्पूर्ण शङ्गाना का निराकरण करने वाली, चन्द्रमा की किरणों के समान शीतलता वा आनन्द को देने वाली शुभ मङ्गलकारी वाणी कही । अर्थात् प्रश्नानुसार परमहितकारो अमृतमय धर्म का व्याख्यान किया ।।१८, १६, २०॥
भो भूपले स्थिर कृत्वा स्थचित्तं शृण साम्प्रतम् । वक्ष्येऽहं जिनधर्मस्य लक्षणं शुभलक्षणम् ॥२१॥ संसारसागरान्नूनं समुद्धृत्य सतः नरान् ।
योधरत्येव सत्सौख्ये स धमो जिनभाषितः ॥२२॥
अन्वयार्थ–(भो भूपते) हे राजन ! (साम्प्रतम्) इस समय (स्वचित्तं) अपने चित्त को (स्थिर कृत्या) स्थिर वारवे (शृण ) सुनो (अहम् ) मैं (जिनधर्मस्य) जिनधर्म का (शुभलक्षणं) श्रेष्ठ स्वरूप (वक्ष्ये) कहता हूँ। (यो) जो (सतः नरान्) सत्पुरुषों को (संसारसागरात्) संसार सागर से (नूनं) निश्चय से (ममुद्धृत्य) निवाल कर (सत्सौख्ये) उत्तम मुख में स्थापित करता है (स ) वह (जिनभाषितः) जिनप्रणीत (धमो) धर्म है ।
भावार्थ-मुनिराज ने कहा हे राजन् ! अभी अपने चित्त को स्थिर कर सुनो, मैं जिनधर्म का शुभ लक्षण कहता हूँ । जो सत्पुरुषों को संसार समुद्र से निकाल कर उत्तम सुख में स्थापित करता है वह जिन प्रणीत धर्म है ।।२१, २२।।
द्विधा धर्मस्सविज्ञेयो मुनिश्रावक भेदतः । महाधर्मो भवेदाधो मुनीनां स्वर्गमोक्षवः ॥२३॥ साररत्नत्रयोपेतः मूलोत्तरगुणयुतः ।
तस्य भेदास्सुधीस्सन्ति बहवः परमागमे ॥२४॥ अन्ययार्थ - (सुधी ! ) हे सुधी (स धर्मः) वह धर्म (मुनि श्रावक भेदतः) मुनिधर्म