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________________ २४४ ] [श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद का उल्लंबन कर सकता है ? कोई नहीं । इसी नीति का अनुसरण श्रीपाल ने किया । वर्वर राजा ने उनका आगमन नहीं जानकर भक्ति और अति अनुराग से उसे अत्यन्त उन्नत, विशाल सैकड़ों प्रकार की बहुमूल्य वस्तुओं से भरे हुए सात जहाज भेट में प्रदान किये । नीति है लक्ष्मो ठुकराने पर पीछे-पीछे दौड़ कर आती है और मनाने पर दूर भागती है।" पुण्य की चेरी है सम्पत्ति । अतः पुण्यात्मा श्रीपाल के पास विना ही थम के दास की भांति प्रा रही है ||६|| वरवस्तुकृतान् श्लाध्य, मणिमुक्ताफलादिकान् । वीपान्तरस्थ वस्तूनि द्विपतुङ्गतुरङ्गमान् ॥६॥ अन्वयार्थ--(द्वोपान्तरस्थ) विभिन्न द्वीपों में स्थित प्राप्त (पलाध्य) प्रशंसनीय (दरवस्तुकृतान् ) उत्तमवस्तुओं से निर्मित (मणिमुक्ताफलादिकान्) मशिग, मोती, हीरादि (द्विपतुङ्गतुरङ्गान्) विशाल-मदोन्मत्त गज, उन्नत अश्वादि (वस्तूनि वस्तुओं को (श्रीपालाय) श्रीपाल के लिए (प्रीत्या) प्रेम से (ददी) प्रदान की। भावार्थ -इस श्लोक का सम्बन्ध नं. ६६ के साथ करना चाहिए । सात जहाजों में अनेक द्वीपों में प्राप्त होने वाली नाना प्रकार की बहुमूल्य अपूर्व वस्तु-मणि, मुक्ता, हीरा आदि थे । तथा विशाल गजराज और वेगशाली समुन्नत तुरंग-घोटक भेट में दिये । सत्य है परोपकारी अपने उपकारी को क्या नहीं देता ? सर्वस्व देने को तैयार हो जाता है। फिर प्राणदाता का कहना ही क्या ? तोन लोक का बैभव भी उसके समक्ष तुच्छ है ।।६।। अथ ते सारवस्तुनि दत्त्वाऽस्य श्रेष्ठिनस्तदा । जगृहुस्तस्य वस्तूनि लाभाय स्वान्ययोरपि ।।६।। अन्वयार्थ-(अथ) पुन: (सार वस्तुनि) उत्तमोतम वस्तुओं को (दत्त्वा) देकर (तदा) तब (अस्यश्रेष्ठिनः) इस सेठ को तथा (तस्य) उस श्रीपाल की (अपि) भी (वस्तूनि) बस्तुओं को (स्वान्ययोः) स्व-पर के (लाभाय) हित के लिए (ते) उन वरवरों ने (जगृहुः ) ग्रहण की। भावार्थ--पारस्परिक मित्रता को स्थायी रखने के लिए आदान-प्रदान आवश्यक है । बरवर राजाओं ने श्रीपालजी को अनेकों अमुल्य बस्तुएँ भेंट की और सेट को भी समस्त सम्पत्ति वापिस कर दी उनके द्वारा सम्मानित श्रीपाल एवं धवल सेट का भी कर्तव्य हो जाता है कि वे भी उनका दान-सम्मान द्वारा आतिथ्य करें। अत: स्नेहाभूत उन बरवर राजाओं ने भी धवल सेठ और श्रीपाल भूपाल द्वारा प्रदत्त वस्तुओं को सहर्ष, विनय पूर्वक स्वीकार किया। क्योंकि यह प्रादान प्रदान स्व और पर सभी के लिए लाभ दायक होता है । पोतस्थ समस्त जनों का रक्षण हुअा और सभी एक दूसरे के प्रिय मित्र बन गये । इस प्रकार उभय और से एक दूसरे का आदर-सम्मान कर वे राजा अपने देश को चले गये और ये भी चले ||९८
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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