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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
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अन्वयार्थ - - (इति) इस प्रकार ( श्रीजिन सिद्धचक्र प्रभावेण ) श्रीजिनेन्द्र भगवान और सिद्धचक पूजा के प्रभाव से ( श्रीपालनामानूपः ) श्रीपाल नाम का राजा ( कामसमाकृतिः ) कामदेव के समान रूपाकृति (गुणनिधिः) गुणों का भण्डार ( सौख्यनिलयः ) सुखों का आकरसदन ( जगद् व्यापकम् ) संसारव्याप्त (कीर्त्या) कीति द्वारा ( नानाभोग विलास ) नाना भोगविलासादि (भुक्त्वा ) भोगकर ( परोपकारनिरतः ) परोपकार में संलग्न हुआ (कान्तया ) अपनी प्रिया के (समम् ) साथ ( तत्र ) वहाँ (स्थ : ) रहने लगा । ( तथा चाऽपि ) और भी -
मावार्थ - राजा श्रीपाल श्रीजिनेन्द्रभक्ति सिद्धचक पूजा विधान से यशस्वी हुआ। कामदेव समान रूप लावण्य शरीराकृति प्राप्त की। गुणों का आकर हो गया । नाना भोगविलासों में निरत होकर भी परोपकार नहीं भूला । धर्म नहीं छोड़ा | अपितु विशेष रूप से परहित और धर्म कार्यों में संलग्न होकर अपनी प्रिया के साथ न्यायोचित भोग भोगने लगा । सूख से स्थित हुआ ॥१८६॥
प्रत्यक्षं जिनधर्मकर्म निरतः श्रीपालनामा नृपः ।
जातो व्याधि विवर्जितो गुणनिधिस्सरसम्पदा मण्डितः !
मत्वैवं भवसिन्धुतारणपरं धर्मं सुशर्माकरम् ।
भो भय्या ! प्रभजन्तु निर्मलधियस्त्यक्त्वा प्रभावं सदा ।। १६२ ||
अन्वयार्थ (जिनधर्म कर्म निरतः ) जिनधर्म और जिनभक्ति प्रादि क्रियाओं रत, (श्रीपालनामा नृपः ) श्रीपाल नाम का राजा ( प्रत्यक्षम् ) साक्षात् ( व्याधिविवजितः ) कुष्ठव्याधिरहित ( गुणनिधिः ) गुरणों का सागर ( सत्सम्पदामण्डित्तः) श्रेष्ठ सम्पत्ति से मण्डित ( जातः) हुआ, ( भो ) है ( भव्याः ) भव्यजनहो! (इति) इस प्रकार ( मत्त्वा ) मानकर - समझकर आप भी ( भवसिन्धुतारणपरम ) संसार जलधि से पार करने में समर्थ ( सुशर्मा किरम् ) सच्चे शाश्वत सुख के करने वाले ( धर्मम्) धर्म को (सदा ) निरन्तर ( प्रमादम् ) प्रमाद ( त्यक्त्वा) छोड़कर (निर्मलधिया) पवित्रभावों से ( प्रभजन्तु ) विशेष रूप से धारण करोसेवो, भजो
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भावार्थ - जिनसा हितैषी । यह जीवों का परम बन्धु है । धर्म ही निस्वार्थ उपकारी है । देखो इसका प्रत्यक्ष माहात्म्य । श्रीपाल ने मन, वचन काय की शुद्धि पूर्वक इसे धारण किया। मैंनासती ने उसी प्रकार नवकोटि शुद्धि से धारण और पालन किया। फलतः राजा श्रीपाल पूर्णत: रोग रहित हो गया। गुरणों से शोभित हुआ । उत्तमोत्तम सम्पदाएँ प्राप्त हुयीं। अनेकों भोगों का अधिनायक हुआ। सांसारिक सुखभोग जो जो हो सकते हैं वे सभी उसे उपलब्ध हुए । परलोक की सिद्धि भी होगी ही । इसलिए आचार्य श्री परमदया और उपकार को भावना से सांसारिक पीडित प्राणियों को सम्बोधन करते हैं "हे भव्यजन हो, आप संसार के दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हो तो जिनधर्म का आश्रय लो। यह धर्म संसार सागर से पार उतारने को सुदृद्ध, निशिछद्र नौका है । समस्त सुखों की खान है । आप प्रमाद