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[श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद सदृश सुकुमारी राजकन्या और कहाँ यह कुष्ठी पति ? जिस समय मदनसुन्दरी की माता सौभाग्यसुन्दरी ने इन विपरीत वर-वधु को देखा तो उसके शोक की सीमा न रही । राजा के प्रति उसका कोप प्रज्वलित हो उठा। पति के अविवेक ने उसका धैर्यबांध तोड़ दिया । वह अपने को मौन रखने में सर्वथा असमर्थ हो गई। नृपति के प्रति बोली हे नाथ ! आपने यह अयोग्य कार्य क्यों किया ? आपके इस अयोग्य कार्य को धिक्कार है, आपको भी धिक्कार है और अकारण इस कोप को एवं अयोग्य स्थान में किये घमण्ड अहंकार को भी धिक्कार है। आप महीपति कहलाते हैं । पुत्री का रक्षण नहीं कर सके फिर क्या प्रजापालन कर सकोगे ? हे राजन् अापने दुराग्रही बन कर यह अयोग्य, पापरूप, दुःखकारी कार्य किया है ।।११:७,११८ ।।
तदा स्व मातरं प्राह पुत्री मदनसुन्दरी । भो मातः नियते शोकः कथं संतापकारकः ॥११॥
अन्वयार्थ--(तदा) तब, माता को शोकाकुल, विलखती देखकर (पुत्री) कन्या (मदनसुन्दरी) मदनसुन्दरी (स्व) अपनी (मातरम् ) माता को (प्राह) कहने लगी (भोमातः) भो माँ ! (संतापकारक:) पीडा उत्पादक (शोकः) शोक (कथं) कैसे (क्रियते) करती हो
__मावार्य-माता को शोकाकुल, विलखती देखकर पुत्री मदनसुन्दरी ने बड़े शांत भाव से समझाते हुए कहा, हे माता तुम क्यो इतना संताप करती हो क्योंकि ---||११६ ।।
शुभाशुभं फलत्युच्च मातः कर्मणा कृतम् ।
जन्तोस्तस्मात् ममैवात्र शरण्यं जिनशासनम् ॥१२०॥
अन्वयार्थ-(भो मातः) हे माता (जन्तोः) प्राणी का (कुतम् ) किया गया (कर्मणा) कर्म के अनुसार (शुभाशुभं) शुभ और अशुभ (उच्चैः) विशेष रूप से (फलति) फलता है (तस्मात् इसलिए (अत्र) अब यहाँ (जिनशासनम) जिनेन्द्र भगवान का शासन (एव) ही (मम) मेरे लिए. (पारण्यं) शरण है । अर्थात् शरण योग्य है।
भावार्थ--हे मातेश्वरो, आप जन्मदात्री हैं, पालन-पोषण कर मुझे योग्य बनाया किन्तु यह सब सुस्त्र-दुःख का मूल हेतु जीव का अपना निज उपार्जित कर्म-निमित्त ही है । स्वयं जीव शुभ और अशुभ अच्छा-बुरा कर्म करता है उससे पुण्य और पाप कर्म अजित करता है । उसकी स्थिति पूर्ण होने पर वही बद्धकर्म जीव को सुख या दुःख देता है । मेरा अशुभकर्म उदय में आने से सबका विचार ऐसा हुआ है । इस अशुभपापकर्म को दूर करने का समर्थ निमित्त कारण जिनशासन है। वही मुझे शरण देने वाला है। उसी की अर्चना से यह कष्ट अवश्य निर्वृत्त होगा। अतः हे मात, तुम शोक मत करो। मैं जिनशासन की शरण में जाती हूँ ।।१२०।।