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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
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विलीन हो जाता है । श्रतः पाप पुञ्जरूपी सघन तम को दूर करने का तथा आत्मशोधन का श्रेष्ठ साधन जिनबिम्ब दर्शन है ।। ५२ ।।
चम्पकानादि वृक्षाद्यैस्सफलैस्सजलाशयैः । मोह्यन्तिस्म ते चित्तं सतां पुण्याकरायथा ॥ ५३॥
अन्वयार्थ - ( यथा पुण्याकरा ) पुण्य के आकार- खजाने के समान ( सफल ) फलों से भरे हुए (चम्पात्रादि वृक्षाद्य : ) चम्पक आम्रादि वृक्षों से मंडित (ते) वे जिनालय ( सतां चित्तं ) सज्जनों के चित्त को (मोह्यन्तिस्म) मोहित करते रहते थे ।
भावार्थ- वन प्रान्तों में स्थित-निर्मित वे जिनालय पुण्य के खजाने के समान थे, प्रचुर पुण्यास्त्रव के कारण स्वरूप थे तथा फल पुष्पों से व्याप्त चम्पकादि वृक्षों से व्याप्त अति मनोज्ञ वे जिनालय सज्जनों के चित्त को हरण करने वाले थे ॥ ५३ ॥
तथा तत्र पुरोत्पन्न भव्यास्सद्धर्मशालिनः ।
रूप सौभाग्यसम्पन्ना जयन्तिस्म सदा सुरान् ॥ ५४ ॥
अन्वयार्थ - ( तथा तत्र पुरोत्पन्न) और वहाँ राजगृह नगरी में उत्पन्न ( सद्धर्मशालिनः ) सद्धर्म - जिनधर्म के अनुयायो ( रूप सौभाग्य सम्पन्ना ) रूप और सौभाग्य सम्पन्न ( भव्याः ) भव्य जन ( सुरान् ) देवों को अर्थात् स्वर्गीय सुख सम्पत्ति को भी ( सदा ) हमेशा ( जयन्ति स्म ) जीतते थे, तिरस्कृत करते थे ।
भावार्थ स्वर्गीय सुख सम्पत्ति से भी अधिक वैशिष्टय उस राजगृह नगरी का था । स्वर्ग में यद्यपि देवों को दिव्य भोग सामग्री प्राप्त है पर वहाँ भी एक दूसरे के वैभव को देखकर वे मानसिक दुःखों से दुखी रहा करते हैं पर राजगृह नगरी में रहने वाले धर्मनिष्ठ नागरिकों का जीवन सर्वतः सुखी था अर्थात् शारीरिक, मानसिक श्राकस्मिक आदि किसी प्रकार का दुःख उनको नहीं था । । ५४ ।।
यत्र नार्यस्तुरूपायास्सम्यक्त्व व्रत मण्डिताः ।
दिव्या भरणवस्त्राद्यैर्लज्जयन्तिस्म देवता । ॥ ५५॥
अन्वयार्थ --. ( यत्र ) जहाँ अर्थात् उस राजगृह नगरी में ( सुरूगाढ्याः ) सुन्दर रूपाकृति वाली ( सम्यक्त्व व्रतमण्डिताः) सम्यग्दर्शन और उत्तम व्रतादि आभूषणों से सुशोभित ( नार्यः) नारियाँ (दिव्याभरणवस्त्राद्यं :) दिव्य प्राभूषण और वस्त्रादि से (देवता) देवाङ्गनामों को ( जयन्तिस्म) जीतती थीं ।
भावार्थ --- उस राजगृह नगरी में उत्पन्न स्त्रियों का पुण्य स्वर्ग की देवाङ्गनाओं से भी अधिक था, जिसके फलस्वरूप उनको ऐसे सुन्दर रूप की प्राप्ति हुई जो देवाङ्गनाओं में भी