________________
[थीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद अनुपलब्ध था अर्थात् वे अपने रूप से देवाङ्गनाओं के भी रूप को जीतने वाली थीं। कहा भी है-"भक्तेः सुन्दर रूप” भक्ति से सुन्दर रूप को प्राप्ति होती है ।।५५।।
सन्तो यत्र जनास्सर्वे दानपूजा तपोवतैः ।
सम्यक्त्वशीलसम्म सापयनिकमा समान
अन्वयार्थ-(यत्र) जहाँ अर्थात् उस राजगृह नगरी में (सम्यक्त्वशील सम्पन्ना) सम्यग्दर्शन और शील सदाचार से युक्त (सम्सो) होते हुए (सर्वेजना:) सब लोग (दानपूजातपोवतः) दान, पूजा, तप और ब्रतों के द्वारा (सरसुखं साधयन्तिस्म) उत्तम मोक्ष मुख को साधते थे।
भावार्थ: जिस प्रकार नौका विशाल नदी को भी पार कराने में साधक होती है उसी प्रकार दान पूजा तप प्रतादि शुभोपयोग की क्रियायें भी मोक्ष की प्राप्ति में क्रम से साधक होती है। "पुनाति आत्मानं पुण्य" ऐसा श्री पूज्यपाद स्वामी और अकलंकदेव स्वामी ने भी लिखा है । शुभोपयोग से पाप क्षय होता है अत: वह आत्म शुद्धि का साधक है । पाप रूप धातिया कर्म की प्रकृतियों को नष्ट करने से कैवल्य की प्राप्ति होती है पुण्य रूप प्रकृतियों को नष्ट करने से नहीं अर्थात् अरहन्त पद को प्राप्ति में बाधक पाप रूप प्रकृतियां हैं । अरहन्त पद मिलने के बाद सिद्ध पद तो सहज स्वभाव से मिलेगा ही, उसमें कोई सन्देह नहीं । अतः उस नगरी के लोग निरन्तर सातिशय पुष्य रूप कार्यों में तत्पर रहते थे ।।५६।।
यत्र भव्यास्सदासर्वे महादान प्रवाहतः ।
कान्तालताः सुवस्त्राद्यैः रेजिरेवासुरन्द्र मा। ॥५७॥ अन्वयार्थ -(महादान प्रवाहतः) महादान के प्रवाह से अर्थात् निरन्तर चारों प्रकार का दान करते रहने से (यत्र सर्वे भत्र्याः) जहाँ सभी भव्य पुरुष तथा (सुवस्त्राधे :) सुन्दर बस्वादिकों से (कान्तालताः) कामिनी स्त्रियाँ (सुरद्र भा:वा) कल्पवृक्ष के समान (रेजिरे) शोभित थीं ।।५७।।
एवं तत्र वसन्तिस्म सन्तस्स्वपुण्यपाकतः ।
धर्मार्थकामसम्पन्ना भाविमुक्तिवसुन्धराः ॥५॥ अन्वयार्थ . . एवं) इस प्रकार (तत्र) उस पुण्य नगरी में (स्वपुण्यपाकतः) अपनेअपने पुण्योदय से (धर्म अर्थ काम सम्पन्नाः) धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों के साधक (भाविमुक्तिवसुन्धराः) निकट भविष्य में मुक्ति पाने वाले (सन्तः) सज्जन पुरुष (वसन्तिस्म निवास करते थे ।।५।।
भावार्थ-उस नगरी के सभी लोग निकट भविष्य में मोक्ष को देने वाले चारों पुरुषार्थो को सिद्धि में यत्नशील थे । धर्म से अर्थ की सिद्धि होती है, अर्थ से काम सिद्ध होता है तथा