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[श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अन्वयार्थ --- (गुणशालिने) उस गुणा श्रीपाल के लिए (दासीदासगजाः) दासियाँ, सेवक, अनेक हाथी (अश्वादि) घोड़ आदि का (समूहम्) समूह, (चन्दनागुरु कारादि) चन्दन, अगरू, कपूर आदि सुवासित (शतानि) सैकडों (सारवस्तुनि) उत्तमोत्तम वस्तुएँ (च) और (सन्तुष्ट चितसन्) प्रसन्नचित्त हुए उस राजा ने (बन्धमोचिनीम) बन्धनमुक्त करने वाली (सुचिद्याम् ) उत्तम विद्या (तथा) एवं (जगद्धिताम्) जगतहितकारी (परशस्त्रहाम्) दूसरे के शस्त्रों को हरने वाली (विद्याम्) विद्या (ददातिस्म) प्रदान को ।
भावार्थ -उस राजा ने अपनी पुत्री और जंवाई को अनेकों सेविकाएँ-सेवक दिये। गज और घोडों के समूह प्रदान किये गुणीजनों पर किसको प्रीति नही होती ? सभी का अनुराग हो जाता है । फिर अब तो दामाद हो गये श्रीपाल जो, फिर क्यों न भेट करता ? यही नहीं प्रसन्नचित्त है, सन्तुष्ट भूपति ने अगर, तगर, चन्दन, कर्मुरादि अनेकों प्रकार की सुगन्धित पदार्थ दिये । साथ ही "बन्धविमोचिनी" नाम की विद्या प्रदान की । इस विद्या के प्रभाव मे कोई शत्रु कितने ही कठोर बन्धन में क्यों न डाल दे, शीघ्र ही बन्धन खूल जाय । सर्वहित करने वाली "परशस्वहारिणी” विद्या भी उसे प्रदान की । इस प्रकार अतुल वैभव के साथ कन्यादान किया। यह सब कुछ राजा ने स्वयं स्वेच्छा से प्रानन्द से प्रदान की । कोई विवशता या बलात्कार से नहीं दी। देने वालों को देकर उत्साह और आनन्द हो वही दान सार्थक है ॥१५६-१५७।।
सत्यं धर्मवतां पुसां जिनधर्मप्रसादतः । सम्भवन्ति तदा सर्व सम्पदः शर्मदा मुदा ॥१५८।।
अन्वयार्थ -(सत्यम्) सत्य ही (धर्मवतांपुसाम्) धर्मात्मापुरुषों को (जिनधर्मप्रसादतः) जिनधर्म के प्रभाव से (तदा) उस धर्म सेवन काल में (मुदा) प्रसन्न हो (सर्वसम्पदः) सम्पूर्ण विभूतियाँ (सम्भवन्ति) उत्पन्न हो जाती हैं ।
भावार्थ -जैनधर्म विश्व में अद्भुत और श्रेष्ठतम धर्म है। जो भव्य इसका पालन घारण करता है उसे अनायास ही सम्पूर्ण सम्पदाएँ प्रसन्न होकर स्वयं आ घेरतो है । अनायास सुख सामग्नियाँ प्राप्त हो जाती हैं। तीन लोक की विभूति उसके चरणों की दासी बन जाती है ॥१५॥
श्रीपालोऽपि स्वपुण्येन समादाय स्वकामिनीम् । महाविभूति संयुक्तः श्रेष्ठिनः पार्श्वमाययौ ॥१५६।।
अन्वयार्थ-(श्रीपाल:) श्रीपाल (अपि) भी (स्व पुण्येन) अपने पुण्य से (स्व) अपनी (कामिनीम् ) वल्लभा को (समादाय) लेकर (महाविभूति) महान वैभव (संयुक्तः) सहित (श्रेष्ठिनः ) धवल सेठ के (पार्श्वम्) पास (प्राययो) पाया।