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[श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद
दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तियुक्तम् । - छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादुञ्चेक्षु रण्डम् ॥
) घृष्टं घृष्ट पुनरपि पुनश्चन्दनं चारू गन्धम् । ( प्राणान्तेऽपि प्रकृति विकृतिर्जायते नोसमानाम् ॥१२॥
अन्वयार्थ--(पुनः पुनः) बार-बार (दग्धं दग्धम् नुपाये जाने पर (अपि) भी (काञ्चनम् ) सुवर्ण (कान्ति) चमक (युक्तम् ) सहित ही रहता है, (इक्षुदण्डम् ) गन्ना (पुन: पुनः) बार-बार (छिन्नं छिन्नम् ) पेले जाने पर (अपि) भी (स्वादुः) मधुरता युक्त ही रहता है, (चन्दनम्) मलियागिरि चन्दन (पुनः पुनः) बार-बार (धृष्टं घाटम् ) घिस-घिस डालने पर (अपि) भी (चारू) सुन्दर (गन्धम् ) सुवासित ही रहता है, ( उत्तमा नाम्) उत्तम वस्तुओं का पुरुषों का भी (प्राणान्ते) प्राणवियोंग होने पर (अपि) भो (प्रकृति ) स्वभाव (विकृति) विकार रूप (न) नहीं (जायते) होता है ।
___ भावार्थ - सत्पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति में एक रूप रहते हैं। शत्रु-भित्र में उनका समभाव रहता है । कितने ही कष्ट क्यों न आयें वे अपने दयाभाव को नहीं छोडते । जिस प्रकार खान से निकले सुवर्ण को अग्नि में तपाने पर भी विकारी नहीं होता अपितु उत्तरोत्तर उसकी दीप्ति-चमक बढ़ती ही जाती है. वादाडों- हान्नों को घाणी ! मशीन में पेलने पर उत्तरोत्तर मधुर रस ही देते हैं, उनमें से कडबाहट नहीं पाती, चन्दन को कितना ही घिसो उसकी सुबास उत्तरोतर अधिकाधिक होगी किन्तु दुर्गन्ध नहीं आ सकती। अभिप्राय यह है कि सुवर्ण, इक्षु, चन्दन, मेंहदी आदि पदार्थ, तपकर, पिलकार, घिसकर, पिसकर भी अपने स्वभाब से च्युत नहीं होते उसी प्रकार सज्जन जन, उत्तम पुरुष भी विपत्तियों के आने पर भी, सताये जाने या पीडित किये जाने पर भी अपनी मानुपी प्रकृति-स्वभाव को नहीं छोडते नहीं, त्यागते ।।२॥
एवं चित्तेविचार्याशु श्रीपाल संजगाद सः ।
अस्मद्देशं दयां कृत्वा समागच्छ भटोत्तमः ॥१३॥ अन्वयार्थ--- (एवं) इस प्रकार (चित्ते) मन में विचार्य) चिन्तवन कर (स:) वह बर्वर राजा (आशु) शीघ्र ही (श्रीपालम्) श्रीपाल से (संजगाद) बोला, (भटोतमः) हे श्रेष्ट वीराग्ररणी ! (दयाम्) कृपा (कृत्वा) करके (अस्मत्) हमारे (देशम्) देश को (समागच्छ) ग्राइये ।।६३।।
भावार्थ ... उपर्युक्त प्रकार विचार कर श्रद्धा भक्ति से भरे बर्वरराज ने प्रत्युपकार को निर्मल भावना से श्रीशल से निवेदन किया ! महानभाव. सभोत्तम ! प्राप दया कीजिये । कृपा कर हमारे देश में पदार्पण करें । पधारें ॥६३।।
अस्माकं प्राणदाता त्वं कुर्मोक्ति च भृत्यताम् । यतः प्रत्युपकारेण कृतकृत्यो भवाम्यहम् ॥१४॥