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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद तं विलोक्य जिनं वीरं केवलज्ञान भास्करम् । सुरासुरनराधोस्सिचित पदद्वयम् ॥११२॥ दिव्यरत्नसुवर्णोरुपीठत्रयसमन्वितम् । मेरोःशृङ्गमियोत्तुङ्ग सिंहासनमधिष्ठितम् ॥११३॥ सेवागत त्रिधाचन्द्राकार छत्रत्रयान्वितम् । बीज्यमान चतुष्षष्ठीचामरः निरोपमैः ॥११४।। सर्वसन्देह विध्वंसीदिव्यध्यनिविराजितम् । हतशोकमहाशोकतरुसंश्रित विग्रहम् ॥११५॥ कोटिसूर्यप्रभास्पद्धि लसत् भामण्डलादिकम् । यत्र भव्याः प्रपश्यन्ति स्वकीयं भव सप्तकम् ॥११६।। नन्ददेव ! जयेत्युच्चैः पुष्पवृष्टि समन्वितम् । मोहारि विजयोत्पन्न देवदुन्दुभि कोटिभिः ।।११७।। समुत्पन्नमहानादेजिताखिल भूतलम् । चतुस्त्रिंशमहाश्चर्यैः प्रसिद्धरजिताखिलम् ॥११॥ गणदशभिनित्यं निग्रंथादिभिरावृतम् । ज्ञानदर्शनकीर्यादि व्यक्तानन्त चतुष्टयम् ॥११॥ इन्द्रनागेन्यचन्द्रार्कखेचराद्यैः सचितम् । नानानरेन्द्र संदोहसमाराधित पङ्कजम् ॥१२०॥ विशिष्टाष्ट महाद्रव्यः समभ्यर्च्य जिनेश्वरम् ।
चकारसंस्तुति राजा महाभक्तिपरायणः ॥१२१॥ अन्वयार्थ--(ततो) इसके अनन्तर (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (त्रि परीत्य) तीनप्रदक्षिणा देकर (नित्यं) नित्य ही (मानस्तम्भादिभि:) मानस्तंभ आदि के द्वारा जिसने (भूतले) पृथ्वी पर (पवित्रीकृत) पावनता का प्रसार किया है ऐसी (प्रभोः) भगवान की (ता सभां प्रविश्य) उस सभा में प्रवेश कर ।
(सुरासुरनराधीशैः) देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ती राजाओं से (सचित) संपूजित हैं (पदद्वयम्) चरणकमल जिनके (दिव्य रत्नसुवर्णोरूपीउत्रय समन्वितम् ) दिव्य रत्नमय सुवर्णमय उन्नत तोन पोठों से समन्वित (मेरोः शृगमिव) सुमेरु पर्वत के शिखर के समान