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________________ ४६६] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद धर्मावं किलमाश्रयान्यमसमं धर्मस्याधस्त्वाश्रयन् । धर्मे तिष्ठ तदाप्तये च नृपते धर्मोऽस्तु ते मुक्तये ॥ १०३ ॥ ( श्रन्वयार्थ – (नुषते ) हे राजन् ( इह ) यहाँ ( इतिमत्वा) ऐसा मानकर ( सधर्मः ) वह धर्म ( भवता ) आपके द्वारा ( विधीयते ) पालन किया जाये ( सुत्र भज ) तुम उस श्रेष्ठ धर्म का श्राचरण करो (धर्मेण ) जिन धर्मानुसार या धर्म के द्वारा ( अखिलं शिवपथ ) परिपूर्ण रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग को ( अनुचर ) ग्रहण करो, पालन करो किल धर्माय नित्यं नमः ) निश्चय से धर्म के लिये नित्य नमन है नमस्कार है ( धर्मात् अन्यं प्रसमं मा आश्रय ) जिनधर्म से भिन्न मिथ्या धर्म का आश्रय मत करो ( धर्मस्य अधः आश्रयन् ) धर्मं के नीने अर्थात् धर्म की छत्रछाया में रहते हुए ( तदान्तये) उभ प्रात्मधर्म को प्राप्ति के लिये (धर्मनिष्ठ) रत्नत्रय रूप धर्म में ही स्थिर हो जाओ ( धर्मो ते मुक्तये श्रस्तु ) वह धर्म तुम्हारी मुक्ति के लिये होवे । भावार्थ - - प्रस्तुत श्लोक में, षट्कारको में धर्म का सन्निवेश कर उस पवित्र धर्म की आचार्य बन्दना करते हुए कहते हैं - हे नृपति ! आपके द्वारा जिनेन्द्रोक्त वह धर्म प्रयत्न पूर्वक पालन किया जाये, यहाँ 'धर्म' में प्रथमा विभक्ति होने से कर्ता कारक है । पुनः तुम उस श्रेष्ठ धर्म को पालो आचरण करो यहां द्वितीया विभक्ति होने से यह कर्म कारक है। free के द्वारा परिपूर्णरत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग को ग्रहण करो, पालन करो यहां 'धर्मेण' में तृतीया विभक्ति है अतः धर्म करण कारक है तथा “निश्चय से धर्म के लिये नमन है -नमस्कार है" यहाँ धर्मा धर्म के लिये चतुर्थी विभक्ति सहित है अतः धर्म सम्प्रदान कारक है पुनः प्राचार्य कहते हैं कि जिनधर्म से भिन्न मिथ्याधर्म का आश्रय मतकरो यहाँ धर्मात् ग्रन्थं धर्म से भिन्न पद पञ्चमी विभक्त युक्त है अतः इसमें अपादान कारक हूं और धर्म के नीचे अर्थात् धर्म की छाया में रहते हुए उस आत्मधर्म को प्राप्ति के लिये रत्नत्रय रूप धर्म में ही स्थिर हो इस वाक्य में "धर्मस्य अधः-धर्म के नोचे" पद षष्ठी विभक्ति सहित है और "तिष्ठ धर्म में स्थिर हो जाओ" सप्तमी विभक्ति युक्त है यतः यहाँ धर्म में सम्बन्ध और अधिकरण कारक का प्रयोग है इस प्रकार षटुकारकों में विभक्त वह जिनधर्मं वर्णित हुआ । अन्त में प्राचार्य कहते हैं हे राजन् ! वह धर्म तुम्हारी मुक्ति के लिये होवे अर्थात् शीघ्र मुक्ति को प्रदान करे ||१०३ ॥ धर्मोष्टफल प्रदस्त्रिजगतां धर्मः सुखानां निधिः । धर्मोमुक्तिधूवशीकरपरो धर्मोमहाधर्मकृत् । धर्मः पापनिकृन्तनो शुभकरो दुःखादिविध्वंसको । धर्मोऽनन्तगुणाकरोऽहनिशं यस्तंस्तुवे मुक्तये ॥१०४॥ अन्वयार्थ -- ( त्रिजगतां ) तीनलोक के समस्त प्राणियों को ( श्रभीष्टफलप्रदः ) इच्छितफल को देने वाला (याः धर्मः ) जो धर्म (सुखानां निधिः ) सुखों का खजाना है ( धर्मो मुक्ति वशीकरrd) धर्म मुक्ति रूपी वधू को वश करने में समर्थ साधन है ( धर्मो महाधर्मकृत् ) जिन
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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