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________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद । [४६५ भावार्थ---जो भव्य सम्यग्दृष्टि पुरुष श्रेष्ठ श्रावकाचार का-शवकों के १२ व्रतों का ११ प्रतिमा रूप बतों का मन बचन काय की शुद्धता पूर्वक सम्यक प्रकार पालन करता है वह उस व्रत के प्रभाव से अच्युतस्वर्ग-१६ वें स्वर्ग पर्यन्त तक जा सकता है अर्थात् समाधि पूर्वक प्राणोत्सर्गकर कल्पवासी देवों के अतिशयकारी सुखों को भोगता है। वहाँ से पुन: वह मध्यलोक में जन्म लेकर पुण्योदय से चक्रवर्ती, बलभद्रादि के पदों को प्राप्तकर सांसारिक सूत्रों र सांसारिक सुत्रों का धर्म पूर्वक भोग करता है और क्रम से महावत धारणकर, अतिपवित्र रत्नत्रय की सम्यक् प्रकार अाराधना करता है, उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शोच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचयं इन १० प्रकार के धन रूपी जल से कर्म कालिमा का प्रक्षालन करता है, ६ प्रकार के बाह्यतप ६ प्रकार के अन्तरङ्ग तपों के द्वारा आत्मा को तपा कर रत्नत्रय की पुष्टि करता है, आत्मा का शोधन करता है । २८ प्रकार के मूलगुणों और ८४ लाख उत्तरगुणों के पालन में तत्पर रहता हआ वह दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, चारित्राचार, और विनयाचार-इन पांच आचार रूपी आभूषणों को धारण कर प्रात्मा को अलङ्कृत करता हा धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के द्वारा, स्वाध्याय में अपने को लगाकर, ज्ञानारूढ़ होकर, ज्ञानधन आत्म स्वरूप में स्थिर होकर, श्रेष्ठ मोक्ष रूपी सुख का अनुभव करता है। इतिमत्वा महाभव्यैः शक्तितो भक्तिपूर्वकम् । आराध्यो जिनधर्मोऽयं नित्यं स्वर्गापवर्गदः ॥११॥ करोति प्रत्यहं योऽत्र धर्मयत्नेन सवतः। सफलं जन्मतस्येदं तद्विना तन्निरर्थकम् ।।१०२॥ अन्वयार्था--(इतिभत्वा) ऐसा मानकर दह श्रद्धानकर (महाभव्ये.) महा भव्यनिकट भव्य पुरुषों के दाम (नित्यं ) सदा, निरन्तर (रवर्गापवर्गदः) स्वर्ग और मोक्षमुख को देने वाला (अयंजिनधर्मो) यह जिगधर्म (भक्तिपूर्वक) भक्ति पूर्वक (माराध्यो) अाराधनीय है, पालन करने योग्य है ।यो अब प्रत्यहं) जो यहाँ प्रतिदिन अर्थात् अहर्निश (यत्नेन) प्रयत्न पूर्वक (सबूतैः) उत्तम व्रतधारणादि क्रियाओं के द्वारा (धर्म करोति) धर्म का पालन करता है (तस्य इदं जन्म सफल) उसी का जन्म सफल है (तद् बिना) धर्म के बिना (तन्निरर्थकम् ) वह भमुष्य जन्म-मानव जीवन निरर्थक है । भावार्थ---जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा कथित उवत धायक व्रतों के स्वरूप एवं महत्व को जानकर उन पर हट श्रद्धानकर, निकट गब्धजनों को, निरन्तर अहर्निश, स्वर्ग और कम से मोक्षमस्त्र को देने वाले जिनधर्म की आराधना में भक्तिपूर्वक संलग्न रहना चाहिये अर्थात प्रयत्न पूर्वक जिनधर्म का पालन करना चाहिये । जो उत्तम प्रतधारण यादि क्रियानों के हारा जिनधर्म का प्रयत्न पूर्वक आचरण करता है उसी का जन्म सफल है धर्म के विना मनष्य जीवन का कोई महत्व नहीं है । धर्म विहीन मानव जीवन निरर्थक है, व्यर्थ है ।।१०१ १०२।। मत्वेतीह विधीयते सभवता धर्मस्सुधर्मभज । धर्मेणानुचराखिलं शिवपथं, धर्माय नित्यं नमः ॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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