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घोपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद]
[४२४ निश्चलं मेरुवद् गाढं गम्भीरं सागरादपि । तं विलोक्य कृपासिन्धुश्चारुरलत्रयान्वितम् ॥१३॥ त्रिपरीत्य महाप्रीस्या समभ्ययंपदाम्बुजम् ।
तन्मुनेः संस्तुति कृत्वा नत्वा तत्पादयोरधः ॥१४॥
अन्वयार्थ--(मेरुवद् निश्चल) सुमेरु के समान निश्चल (सागरादपि) समुद्र से भी (गाढे गम्भीर) प्रति गम्भीर (चारु) उत्तम निर्मल (रत्नत्रयान्वितम्) रत्नत्रय से युक्त (कृपासिन्ध) दयासिन्धु (तं विलोक्य) उन मुनिराज को देखकर (महाप्रीत्या विपरीत्य) अत्यन्त प्रीति पूर्वक तीन परिक्रमा देकर (पदाम्बुजं समभ्य चर्य) चरणकमलों की सम्यक् प्रकार पूजाकर तथा (तन्मुनेः) उन मुनिराज की (संस्तुति कृत्वा) पवित्र स्तुति कर (नत्वा) नमस्कार कर (तत्पादयोः अधः) उसके चरणकमलों के नीचे (संस्थितो) बैठ गये।
भावार्थ-वे मुनिराज अपने व्रतों में सुमेरु के समान निश्चल वा दृढ़ थे, तथा ज्ञान में समुद्र से भी अधिक गम्भीर थे । पवित्र रत्नत्रय से युक्त दया के सिन्धु थे। ऐसे उन मुनिराज की तीन परिक्रमा देकर महाप्रीति पूर्वक चरणकमलों की पूजा कर सम्यक् प्रकार स्तुति कर नमस्कार कर श्रेणिक महाराज, चरणों के समीप नीचे बैठ गये ।।१३, १४॥
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-पात
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