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________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद जयकोलाहलं कुर्नन् ससभा परमादरात् । नत्वा तस्मै महादानं दत्त्वा सानन्द निर्भराः ॥६॥ दापयित्वा महाभेरो शुभांसन्मार्ग सुचिनीम् । नववादित्र सन्दोहैस्सज्जनः परिवेष्टितः ।।१०।। छत्रादिभिर्गजारूढः पूजाद्रव्यशतान्वितः । स्वप्रियापरिवारेण मण्डितः पौरसत्तमः ।।११॥ गत्वाशु तद्वनंरम्यं शुद्धाशोकतरोरधः । निश्चले शिला पीठे पवित्र संस्थितं मुनिम् ॥१२॥ अन्वयार्थ-(वदाकर्ण्य) उस समाचार को सुनकर (सद्धर्मरसिको) सच्चे धर्म में अनुराग रखने वाला (महान् सोऽपि) महापुरुष वह श्रीपाल भी (मुदा) आनन्द से भरा हुआ (सिंहासनात्) सिंहासन से (समुत्थाय) उठकर (च सप्त पदानि) और सात डग (गत्वा) जाकर (ससभा) सभा सहित (पर मादरात्) परम आदर पूर्वक (जय कोलाहलं कृत्वा) जय जय ध्वनि करके (नत्वा नमस्कार कर (सासन्न भिंग) अानन्द भरा हुमा (तस्मै महादानं दत्त्वा) उस वनपाल को प्रचुर धनराशि देकर (शुभां सन्मार्ग सूचिनीम्) शुभ मङ्गल वा सन्मार्ग को सूचित, प्रदर्शित करने वालो (महाभेरो दायित्वा) महाभेरी बजवाकर (नदद्वादित्र सन्दोहै:) वजते हुए बादित्रों और (सज्जनेः परिवेष्टित:) सज्जनों से परिवृत-घिरे हुए (पूजा द्रव्यशतान्वित:) सैकड़ों प्रकार के पूजा द्रव्यों से सहित (स्वप्रियापरिवारेण पौरसत्तमैः मण्डितः) अपनी प्रियाओं, श्रेष्ठ परिजन पुरजनों मे मण्डित-मुशोभित (छत्रादिभिः गजारूढः) छत्रादि से युक्त हाथी पर सवार हुमा (तद् रम्यं वनं) उस रमणीक वन में (प्राशु गत्वा) शीघ्र जाकर (शुद्धाशोकतरो: अधः शुद्ध पवित्र अशोक वक्ष के नीचे (पवित्रे निश्चले शिलापोठे) पवित्र निश्चल शिला पीठ पर (संस्थितं मुनि) बैटे हुए मुनिराज को, देखा । वे मुनिराज कैसें थे उसे आगे बताते हैं। भावार्थ-महातपस्वी, ऋद्धिधारी मुनिराज के आगमन का समाचार सुनकर सत्धर्मा. नुरागी श्रेणिक महाराज बहुत आनन्दित हुए और सिंहासन से उठकर सात डग जाकर सभा सहित उन मुनिराज को आदर पूर्वक नमस्कार किया और जय जय ध्वनि पूर्वक मुनिराज की स्तुति को। परमानन्द को प्राप्त हुए श्रीपाल महाराज ने वनपाल को प्रचुर धन राशि देकर विदा किया और मङ्गलकारो शुभ समाचार को सूचित करने वाली, सन्मार्ग का प्रदर्शन करने वाली महाभेरी बजवा दी तथा अपनो प्रियाओं, परिजन और पुरजनों सज्जनों के साथ, बजते हुए वादियों सहित, प्रभावना पूर्वक त्रादि से युक्त हाथी पर सवार होकर, शीध्र उस वन में पहुँच गये । वहाँ पवित्र शिला पर अशोक वृक्ष के नीचे बैठे हुए अत्यन्त निश्चल ध्यानस्थ श्रुतसागर मुनिराज को देखा । वे मुनि कैसे थे सो आगे बताते हैं ।।८ से १२।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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