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________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ] [ ४२७ भावार्थ -- जब श्रीपाल महाराज महा विभूति के साथ सभा में सिंहासन पर आरूढ़ थे तब नाना प्रकार के पुष्प फलों को लेकर वनपाल आया और राजा को भेंट कर कहने लगा कि हे राजन् ! हे प्रभु! समस्त प्रागम को जानने वाले अवधिज्ञान रूप दिव्य नेत्र के धारी, समस्त जीवों पर दया करने वाले दयासिन्धु, श्रुतसागर नामक महामुनि राजवन में श्राये हुए हैं । इस प्रकार मुनिराज के श्रागमन की सूचना राजा को प्रति विनय पूर्वक देकर वह वनपाल वहुत सन्तुष्ट हुआ । मुनिराज के आश्चर्यकारो महा प्रभाव का वर्णन करते हुए वह वनपाल राजा को कहने लगा ॥३४॥ सर्वसङ्गविनिर्मुक्तस्संसक्तो जिनवत्र्त्मनि । मृतजयीवृष्ट्या तर्पयन् भव्यचातकान् ||५३ तत्प्रभावेन भो देव तरवो योऽवकेशिनः । तेऽपि पुष्पफलस्तोमेस जांता सर्वातिर्पिणः ॥६॥ सदया दानिनोवोच्चैस्तथा पूर्ण जलाशयाः । सिंहादयो महाक्रूरास्त्यक्त नैराश्च तेऽभवन् ॥७॥ अन्वयार्थ -- (सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः ) समस्त बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह से रहित ( जिनवर्त्मनि ) जिनेन्द्र प्रणीत मोक्षमार्ग में (संसक्तो ) अनुरक्तः संलग्न ( धर्मामृतमयी वृष्ट्या ) धर्मामृत की वर्षा से ( भव्य चातकान् ) भव्य रूपी चातक पक्षियों को ( तर्पयत्) तृप्त करते हुए ( तत्प्रभावेन) उन मुनिराज के प्रभाव से ( भो देव ! ) हे स्वामी ! (योsव केशिनः तरवो ) जो फलहीन वृक्ष हैं ( प ) वे भी ( सर्वतर्पिणः ) सबको संतृप्त करने वाले सुमधुर (पुष्पफलस्तोमः ) पुष्पों और फल समूह से ( सजाता ) परिपूर्ण हो गये हैं (तथा) उसी प्रकार (पूर्णजलाशयाः ) सरोवर भी जल से भर गये हैं इस प्रकार प्रकृति भी ( सदया उच्च दानिना इव ) दयाशील श्रेष्ठ दाता के समान प्रतीत हो रही है। (सिंहादयो) सिंह आदि ( ते महाराः ) वे महाक्रूर पशु ( त्यक्तवैराः) बैर रहित (अभवन् ) हो गये हैं । भावार्थ- -वन में आये हुए मुनिराज सम्पूर्ण प्रकार के बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह सं रहित हैं तथा जिन प्रणीत मोक्षमार्ग में अनुरक्त, संलग्न हैं, धर्म रूपी वर्षा से भव्यरूपी चातक पक्षियों को सदा संतृप्त करने वाले हैं। उनके महाप्रभाव से पुष्प वा फलों से रहित वृक्ष भी सबको तृप्त करने वाले पुष्प और फलों के गुच्छों से भर गये हैं। सूखे सरोवर भी स्वच्छ जल से सहसा भर गये हैं। इस प्रकार उस वन में प्रकृति भी दयाशील श्रेष्ठ दाता के समान प्रतीत हो रही है । सिंहादि महाकर पशु भी वैर विरोध रहित हो चुके हैं। इस प्रकार मुनिराज का प्रभाव अतुल है, ग्राश्चर्यकारी है 11 ५ से ७।। तदाकर्ण्य मुदा सोऽपि सद्धर्म रसिको महान् सिंहासनात्समुत्थाय गत्वा सप्तपदानि च ॥८॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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