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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
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यही जीव का लक्षण है जैसा श्री उमास्वामी आचार्य ने लिखा भी है-: उपयोगो लक्षणं" जीव का लक्षण उपयोग है ।
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भावार्थ- जो वेता गण से सहित हो वह जोव है। चेतना के तीन भेद भी हैं(१) ज्ञान चेतना (२) कर्म चेतना ( ३ ) कर्मफल चेतना सम्यम्वष्टि के जब प्रात्मानुभूति के साथ उपयोग का परिणमन होता है तब उसे ज्ञान चेतना कहते हैं । यह चतुर्थ गुणस्थान से सिद्ध श्रवस्था पर्यन्त तारतम्य रूप से शुद्ध होती हुई पूर्ण शुद्धता को प्राप्त होती जाती है और सिद्धावस्था में परमशुद्ध हो जाती है। मुख्यतः कर्म चेतना मिथ्यादृष्टि के होती है श्रंशांश रूप में सम्यष्टि के भी होती है तथा कर्मफल चेतना मुख्यतः एकेन्द्रिय जीव के तथा अंशांश रूप मेंन्द्रियादि के भी पायी जाती है। इस भेद को अवगत कर अशुद्ध कर्म चेतना और कर्मफल चेतना का परिहार कर शुद्ध ज्ञान चेतना की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिये ।
संसारे संसरन्नित्यं अष्टकर्मारिवेष्टितः ।
कर्त्ता भोक्ता स संसारी कर्मणां भवकारिणाम् ॥ १३५॥
अन्वयार्थ - (अष्टकर्मारिवेष्टितः ) जो भ्रष्ट कर्मों से वेष्टित वा बद्ध है ( स ) वह ( नित्यं संसारे संसरन् ) निरन्तर संसार में गत्यन्तर रूप भ्रमण करता हुआ ( भवकारिणाम् कर्मणां ) भव अर्थात् संसार जनक कर्मों का ( कर्त्ता भोक्ता) कर्त्ता और भोक्ता (संसारी) संसारी जीव कहलाता है ।
अर्थ – जो अष्ट दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओं से प्राक्रान्त हैं। भव बीज रूप कर्मों के कर्त्ता और भोक्ता हैं उन्हें संसारी जीव कहते हैं ।
भावार्थ---''संरररणं संसार : " चतुर्गति में परिभ्रमण
का है ( १ ) द्रव्य संसार ( २ ) क्षेत्र संसार (३.) काल संसार संसार क्योंकि इनके श्राश्रय से यह जीव निरन्तर संसार में तिर्यञ्च मनुष्य और देव ये ४ गतियाँ हैं जिनमें यह जीव जन्म वा मरण करता रहता है । उत्पत्तिस्थान की अपेक्षा ६४ लाख योनियों हैं और शरीर की विविधता के कारण भूत नो कर्मवर्गणाओं के भेद से १६६४४२ कोटिकुल हैं। शरीर भेद के कारण भूत नोकर्मणाओं के भेद को कुल कहते हैं जिनका विस्तार से वर्णन अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों से जान लेना चाहिये । संसारी जीव इनके माध्यम से अष्टकर्मो का उपार्जन करते हैं और स्वयं ही उनके शुभाशुभ फलों को भोगते हैं सुखी दुःखी होते हैं ।
होना संसार हैं । जो ५ प्रकार
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४ ) भाव संसार ( ५ ) भवपरिभ्रमरण करता है । नरक,
सोsपि संसारिको द्वेधा भव्याभव्यप्रभवतः । रत्नत्रयोचितो भव्यस्त द्विपक्षपरोमतः ॥ १३६ ॥
अन्वयार्थ - ( सोऽपि संसारिक: ) वह संसारी जीव भी ( भव्या भव्य प्रभेदतः ) भव्य और अभव्य के भेद से (द्वेधा) दो प्रकार का है ( रत्नत्रयोचितो ) रत्नत्रय को प्रकट करने की