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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद योग्यता रखने वाला (भव्यः) भव्य है (तद्विपक्षः) उससे विपरीत-रत्नत्रय की अभिव्यक्ति में अयोग्य (परोमतः) अभव्य माना गया है ।
अर्थ संसारी जीब दो प्रकार के हैं-- (१) भव्य (२)अभव्य । जिनमें रत्नत्रय को प्रकट करने की योग्यता है वे भव्य जीव हैं और जो कारण मिलने पर भी रत्नत्रय को प्रकट नहीं कर पाते हैं उन्हें अभव्य जीब समझना चाहिये ।
लाचार्य-निराकर अगादि काल से खान में पड़ा, किट्टकालिमा से सहित सुवर्ण योग्य निमित्त कारणों के मिलने पर शुद्ध कुन्दन बन जाता है उसी प्रकार भव्य जीव पांच लब्धियों का पालम्बन निमित्त मिलने पर सम्यग्दर्शन को प्रकट कर लेता है। तथा जिस प्रकार अन्धसुवर्ण पाषाण किसी भी उपाय से शुद्ध सुबर्णरूप परिणत नहीं होता है उसी प्रकार अभव्यजीव शक्ति रूप में रत्नत्रय होते हुए भी उसकी अभिव्यक्ति में असमर्थ होते हैं अर्थात् कभी भी किसी भी उपाय से रत्नत्रय का प्रकटीकरण उनके नहीं होता है ।
गत्यादिमार्गणाभेवैगुणस्थानस्संभूतर्फः ।
नानाविधो जिनेन्द्रणप्रोक्तोऽसौ भुवनेशिना ॥१३७॥
अन्वयार्थ---(भूवनेशिना जिनेन्द्रण) तीन लोक के ईश्वर श्री जिनेन्द्र देव के द्वारा (अमौ) वह संसारी जीव (गत्यादिमार्गणाभेदैः) गति आदि १४ मार्गणाओं के भेद से (गुण(स्थानसंभुत्तकैः) गुणस्थानों और जीवसमासों की अपेक्षा से (नानाविधोप्रोक्तो) अनेक प्रकार का कहा गया है।
भावार्थ-संसारी जीव अनेक प्रकार के हैं। जिनेन्द्र प्रभु ने अपने चराचर व्यापी ज्ञान के द्वारा ज्ञात कर १४ मार्गणाओं, १४ गुणस्थान और जीव समासों की अपेक्षा से संसारी जीवों के अनेक भेदों का यथावस्थित सम्यक् वर्णन किया है।
मार्गणाएँ चौदह हैं। जिनमें या जिनके द्वारा नाना अवस्थाओं में स्थित जीवों का अन्वेषण किया जाय, खोज की जाय उन्हें मार्गणा कहते हैं। मार्गणा शब्द का अर्थ है खोजनाहूँढना।
___"मृग्यतेऽनेन जीवादयरितिमार्गणा" जिनके द्वारा जीवादि तत्वों का अन्वेषण किया जावे वे मार्गणाएं हैं जिनके १४ भेद इस प्रकार हैं १ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ योग, ५ वेद, ६ कषाय, ७ ज्ञान, ८ संयम, ६ दर्शन, १० लेश्या, ११ भव्यत्व, १२ सम्यक्त्व, १३ संज्ञी और १४ आहार ।
(१) गति-भव से भवान्तर को प्राप्त होना गति है । जो ४ हैं-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति ।
(२) इन्द्रिय--संसारी आत्मा के लिङ्ग या चिन्ह को इन्द्रिय कहते हैं जिनके ५ भेद हैं १-स्पर्शन, २-रसना, ३-प्राण, ४-चक्षु और ५-कर्ण ।