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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद]
[ ६७ (३) काय—जाति नामकर्म के अविनाभाबी त्रस और स्थाबर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को जिनमत में काय कहते हैं । यद्यपि काय शब्द का निरुक्ति अर्थ शरीर है किन्तु यहाँ मार्गणा के प्रकरण में यह-शरीर अर्थ उपचरित है गौण है।
(४) पोग-पुद्गल विपाकी शरीर नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की जो कमों के ग्रहण करने में कारण भूत शक्ति है उसको योग कहते हैं।
(५) वेद--स्त्री का पुरुष के साथ और नपुंसक के स्त्री पुरुष दोनों के साथ रमण करने की अभिलाषा विशेष का होना वेद है।
(६) कषाय—जो प्रात्मा को कषे-दुःख देवे वह कषाय है।
(७) ज्ञान–पदार्थों को जानने की शक्ति रूप धर्मबाला ज्ञान गुण है जो जीव का लक्षण भी है।
- (८) संयम---षट्काय जीवों की रक्षा करना और पञ्चेन्द्रिय तथा मन को वश में करना संयम है।
(8) दर्शन-जीव में जो सामान्य अवलोकन रूप देखने की शक्ति विशेष है उसे दर्शन कहते हैं अर्थात् सामान्य प्रतिभास रूप धर्मवाला दर्शन होता है ।
(१०) लेश्या-"कषायानुरञ्जित योग प्रवृत्ति लेण्या" कषायों से लिप्त योगों की प्रवृत्ति को लेण्या कहते हैं।
(११) भव्यत्व-रत्नत्रय को प्रकट करने की शक्ति विशेष का नाम भव्यत्व है और रत्नत्रय को प्राप्त करने की योग्यता सहित जीव भव्य कहलाता है इसके विपरीत लक्षण वाला अभव्य है।
(१२) सम्यक्त्व--"तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन" तत्वों के यथार्थ श्रद्धान का होना सम्यक्त्व है।
(१३) संजी---मन सहित वा मन रहित जीवों का कथन करने वाली संजी
मार्गणा (१६) संजी-मन सहित न
(१४) आहार-तीन शरीर और ६ पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल वर्गणाओं का ग्रहण करना आहार है तथा इनसे युक्त जीव आहारक कहलाता है ।
अब गुणस्थान का स्वरूप और भेद बताते हैं--
__ मोह और योग के मिश्रण से होने वाले जीव के परिणाम विशेष को गुणस्थान कहते हैं । जिनके १४ भेद हैं-१-मिथ्यात्व, २-सासादन, ३-मिश्र, ४-सम्यक्त्व सहित अविरत जीवअविरत सम्यग्दृष्टि ५-देशविरत, ६-प्रमत्तविरत, ७-अप्रमत्त, ८-अपूर्वकरण, ६–सुमनिवृत्ति