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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद करण, १०-सूक्ष्मसाम्पराय, ११- -उपशान्त मोह, १२ - क्षीणमोह, १३ - सयोग केवली और १४-प्रयोगकेवली और १४ - प्रयोग के बली
अब जीव समासों को बताते हैं--
"जीवाः समस्यन्ते संक्षिप्यन्ते-संगह्यन्ते यैः धर्मस्ते जीवसमासा:" जिनके द्वारा अनेक जोव तथा उनको अनेक प्रकार को जाति जानी जाय उन धर्मों को अनेक पदार्थों का संग्रह करने वाला होने से जोवसमास कहते हैं। जो स्थल रूप से १४ भेद वाले हैं तथा अवान्तर भेद १८ हैं पुन: प्रभेद करने से ४०६ तथा संख्याच असंख्यात भेद भी हैं।
१४ भेद इस प्रकार हैं (१) एकेन्द्रिय बादर (२) एकेन्द्रिय सूक्ष्म (३) द्वन्द्रीय (४) योन्द्रिय (५) चतुरिन्द्रिय (६) असंजीपञ्बेन्द्रिय (७) संज्ञी पञ्चेन्द्रिय । ये सातों ही पर्याप्त और अपर्या-ज के भेद से दो-दो भेद वाले हैं अत: ७४२ - १४ भेद होते हैं। इनके अन्य प्रकार भेदों को जीबकाण्ड गोमसार से जानिये।
मुक्तो जीवो भवेत्सिद्धो निराबाधो निरञ्जनः ।
दुष्टाष्टकर्म निर्मुक्तस्त्रैलोक्यशिखरे स्थितः ।।१३८॥ अन्वयार्थ - (दुष्टाष्टकर्म निर्मुक्तः) दुष्ट-दुःखदायी आठ द्रव्य कमों से रहित (निरञ्जनः) भावकर्म रूपी रज से रहित (निराबाध) बाधारहित अव्यावाध सुख (त्रैलोक्यशिखरस्थित:) तीन लोक के शिखर पर तनुवातवलय में स्थित मुक्तः) मुक्त (जीवः भवेत्) जीव होते हैं।
भावार्थ जो द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म से रहित हैं, अष्ट कर्मों से रहित होने से अव्याबाघ मुख का अनुभव करने वाले हैं और लोक के शिखर पर अनुवातबलय में मिद्ध शिला पर विराजमान हैं वे शिद्ध या मुक्त जीव हैं।
अजीवः पुद्गलः प्रोक्तः षट्टप्रकार स्वभावतः ।
तद् भेदाश्च परे स्पर्शरसगन्धसुवर्णकाः ॥१३॥
अन्वयार्थ—(अजोवः पुद्गलः) अजीवरूप पूदगल द्रव्य (स्वभावत.) स्वभाव से (षट् प्रकार प्रोक्तः) छ: भेदवाला कहा गया है (स्पर्शरसगन्ध सुवर्गाकाः) स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण हैं गुरण जिनके ऐसे (तभेदा:) पुद्गल के भेद (परे च) और भी हैं।
भावार्थ:-- जीव के बिना शेष पाँच द्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अजोब रूप हैं। इनमें पुदगल द्रव्य वर्ण, गन्ध, स्पर्श और रस गुणवाला है तथा उस पुद्गल के ६ भेद हैं जिनका नाम आगे के श्लोकों में बताया गया है। उनमें भी प्रभेद करने से अनेकशः बहुत भेद हो सकते हैं।