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[श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद भावार्थ---यहाँ इस पुरो में कहीं भी कोई भी मेरे पिता का नाम नहीं लेता । मैं कभी अपने पुज्य पिता का नाम नहीं सुनता। मुझ मन्दभागो ने विपरीत ही कार्य किया। पिता का नाम रोशन न कर श्वसुर का नाम प्रसिद्ध किया । मेरा यह दुर्भाग्य ही है ।।३।।
इत्यादि चिन्तयाक्रान्त स्वभारं विलोक्य सा । कन्दर्पसुन्दरी प्राह कि स्वाभिन्मुखपङ्कजे ।।४।। म्लानता कारणं हि नाथ मे करुणापरः । श्रीपालस्सजगौ कान्ते मत्पितु म निर्गतम् ॥५॥ श्रूयते श्वसुरस्यैव नाम सर्वत्र सर्वदा ।
अतो मे जायते दुःखं मानसे मत्प्रिये शृण ॥६॥ त्रिकुलम् ॥ अन्वयार्थ... (इत्यादि) उपर्युक्त प्रकार से (चिन्तयाकान्तम) चिन्ताग्रस्त (स्व) अपने (भरिम ) पति को (विलोक्य ) देखकर (सा) वह मैनासुन्दरी (कन्दर्पसुन्दरी) मदनसन्दरी (प्राह) बोली (स्वामिन् ) हे स्वामिन् (मुखपङ्कजे) मुखकमल पर (म्लानता) मनिनता का (कारणम ) कारण (कि) क्या है (नाथ !) हे नाथ (करुणापर:) आप दयालु है दयाकर (मे) मुझे (ब्र हि) कहिये। (धोपाल:) श्रीपाल (संजगौ) बोला (कान्ते ! ) हे प्रिये ! (मत) मेरे (पितुः) पिला का (नाम) नाम (निर्गतम ) नष्ट हो गया (सर्वदा) हमेशा (सर्वत्र) सर्व जगह (श्वसुरस्य) ससुर का (एब) ही (नाम) नाम (श्रूयते) सना जाता है। (अतः) इसलिए (मत्प्रिये) हे मेरी प्राणवल्लभे (मे) मेरे (मानसे) मन में (दुःखम ) दुःख (जायते) होता है।
___ भावार्थ----प्रनेक तर्क-वितर्क करके श्रीपाल राजा बहुत ही चिन्तित हो गये । उनका मुखपङ्कज मुरझा गया । अपने पतिदेव को चिन्तातुर देखकर मदनसुन्दरी व्याकुल हो उठी। वह प्रार्थना करने लगी, हे स्वामिन्, आपका मुखपङ्कज आज म्लान क्यों है ? हे नाथ दयाकर आप अपने दुःखका कारण कहिए। आप करुणामय हैं । शीघ्र ही मुझ से अपनी उदासी का कारण कहिये श्रापका मुख-दुःख ही मेरा सुख-दुःख है। मेरा मत अघोर हो रहा है,
आप यथार्थ कारण अवश्य ही कहिये । अपनी प्रिया की प्रार्थना सुनकर श्रीपालजो कहने लगे, हे प्रिये ! मेरे पिता का नाम ही नष्ट हो गया । यहाँ सर्वत्र सदा मेरे श्वसुर का ही नाम सुनते हैं मेरे साथ श्वसुर जो का ही नाम जुड़ गया है । सब कोई प्रजापाल' राजा का जंबाई कहकर ही पुकारते हैं । यही मेरे दुःख का मूल कारण है । हे प्राररावल्लभे ! सुनो, मेरे पिता का हो नाम नहीं तो मेरे जीवन ही से क्या प्रयोजन ? ।।४-५-६।।
। मातुलस्य भगिन्याश्च श्वसुरस्य सुयोषिताः ।
/ नाम्ना धनेन जीयन्ति भवंत्येतेऽधमाधमाः ॥७॥ अन्वयार्थ (ये) जो (मातुलस्य) मामा के (भगिन्याः) अह्निों के (श्वशुरस्य)