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________________ |५५७ श्रोपास चरित्र दसम् परिच्छेद ] यथा श्रीपालराजोऽयं सिद्धचक्रव्रतोत्तमम् । कृत्त्वाक्रमेण सम्प्राप्तो मोक्षं सौख्यनिकेतनम् ॥१३॥ तथाभन्याः करिष्यन्ति ये सिद्धवतचक्रजम् । तेऽपि राज्यादिकं प्राप्य मुक्ति यास्यन्ति शाश्वतीम् ॥१३६॥ एबमुक्त्वा बुधैनित्यं जैनधर्म परायणः । एतद्वतं जगत्सारं समाराध्य सुयत्नतः ॥१३७।। सर्थसिद्धिकरं पूतं सिद्धचक्रार्चनं व्रतम् । सेवितं सर्वभव्यानां कुर्यात्सारश्रियं शुभम् ॥१३८॥ अन्वयार्थ- (यथा) जिस प्रकार (अयम् ) यह (श्रीपाल राजा) श्रीपाल भूपति (उत्तमम्) उत्तम (सिद्धचक्रव्रतम्) सिद्धचक्र व्रत को (कृत्वा) करके (क्रमशः) क्रम से (सौख्यनिकेतनम्) सुख का धाम (मोक्षम् ) मोक्ष को (सम्प्राप्तः) प्राप्त हुए । (तथा) उसी प्रकार (ये) जो (भव्याः ) भव्यजन (सिद्धचक्रजम् ) सिद्धचक्र से उत्पन्न (वतम्) व्रत को (करिष्यन्ति) करेंगे (ते) वे (अपि) भी (राज्यादिकम्) राज्यादिसम्पदा (प्राप्य ) प्राप्तकर (शाश्वतीम) चिरस्थायी (मुक्तिम्) मोक्ष को (यास्यन्ति) जायेंगे । (एवम् ) इस प्रकार (उवत्वा) कथनकर (जैनधर्मपरायण:) जैनधर्म में जस्पर (बुधैः) विद्वानों द्वारा (जगत्सारम् ) संसार में सार भूत (एतत्) यह (ब्रतम्) व्रत (सुयत्नतः) सम्यक् प्रयत्न से (समाराध्यम) पीय है।(सर्वभव्यानाम। सर्ब भक्ष्यों से (सेवितम) सेवित (सर्वसिद्धिकरम ) सम्पूर्ण सिद्धियों को करने वाला (पूतम ) पवित्र (सिद्धचक्रार्चनं व्रतम ) सिद्ध समूह की पूजनयुतव्रत (शुभम् ) कल्याणकारी (सारश्रियम) उत्तम मोक्ष लक्ष्मी को (कुर्यात्) प्रदान करे। भावार्थ--इस महापवित्र, पुण्यवद्धंक, पाप प्रणाशक, मुक्तिसाधक शास्त्र को परिसमाप्ति करते हुए आचार्य श्री आशीर्वादात्मक अन्त्यमङ्गल करते हैं तथा यह ग्रन्थ सर्वहितकारी और लोकप्रिय हो यह भावना प्रकट करते हैं । जिस श्रीपालकोटीभट महामण्डलेश्वर नृपति ने परम पवित्र, महा अतिशयवान, चमत्कारी श्रोसिद्धचक्रवत को विधिवत् श्रद्धाभक्ति से स्वीकार कर एवं पूर्णपवित्र भावों से पालन कर क्रमशः दिगम्बर हो. तपश्चरण कर अनन्तसुख का परमस्थानमोक्ष प्राप्त किया। उसी प्रकार अन्य भव्यजन भी इसी प्रकार यथाविधि धारण पालन, उद्यापन करने में प्रवृत्त होंगे वे भी अनन्तचतुष्टय रूप सारभूत शाश्वत लक्ष्मी एवं सुख प्राप्त करेंगे । अर्थात् मोक्ष जायेंगे। सांसारिक चक्रवादि पद, देवेन्द्रादि पदों के सुख भोग ऋमपा: वह सुख पायेंगे "यत्रनासुखम " जहाँ से फिर दुःख होगा ही नहीं । इस प्रकार वर्णनकर आचार्य श्री कहते है कि जनधर्मपरायण विद्वदजन विश्वविख्यात और सारभूत इस सिद्धचक्रमहावत की सभ्यक प्रकार प्रयत्न पूर्वक अाराधना करने में तत्पर हों। सम्पर्ण सिद्धियों को करने वाला, परमपावन, सर्वभब्यात्मानों से सेचित यह सिद्धचक्रवत परम पावन, सारभूत अक्षयलक्ष्मी प्रदान करें । अर्थात् मुक्तिश्री देवे ।।१३५-१३६-१३७-१३८।। इत्यादि कोमलैक्यिः पूर्वाचार्यक्रमेण च । तुच्छ बुद्धयावबोधार्थ श्रीपालनपतेहितम् ॥१३॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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