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प्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ]
[२८१ तं समुद्रं समुत्तीर्य क्रमेण शुभयोगतः । अनेक जन्तु सङ्कोणं निर्भयः सुभटाग्रणीः ॥३२॥ द्विधा रत्नत्रयेणोच्चैः भव्याब्जः पारमुतमम् ।
मुनि स तदा प्राप दलवर्तन पत्तनम् ॥३३॥ माल्यार्थ. - (ला) यथा नै महान (भव्याजैः) भव्य पुण्डरीकों द्वारा (द्विधा) निश्चय-व्यवहार रूप दो प्रकार वाले (रत्नत्रयेण) रत्नत्रय से (उत्तमम् ) मुक्तिरूप (पारम्) तट, (वा) अथवा (मुनिः) मुनिराज संसार सागर का पार, (प्राप) पाते हैं (तथा) उसी प्रकार (सः) उस (निर्भयः) निडर (सुभटाग्रणीः) सुभटशिरोमणि ने (शुभयोगत:) शुभ-पुण्ययोग से (क्रमेण) कम-कम से (तम्) उस (अनेकजन्तुसङ्कीर्णम्) नाना प्रकार के ऋ र जन्तुओं से भरे (समुद्रम्) रत्नाकर को (समुत्तीर्य) पार करके (तदा) तब (दल बर्तनपत्तनम् ) दलवर्तन नाम के रत्नद्वीप को (प्राप) प्राप्त किया ।
मावार्थ---यहाँ श्री पूज्य आचार्य श्री ने संसार को सागर बताया है। सागर में अथाह जल भरा होता है, संसार में प्राणियों की तृष्णा असीम है अतः यही आशारूपी नीर है, सागर का जल खारा होता है, संसार का विषय-वासनाजन्य सुख भी म्हारे जल की भाँति अतृप्ति
और अशान्ति का कारण है । समुद्र में मगरमच्छ, घडियाल नर-चक्र होते हैं संसार में रोग, शोक, आधि-व्याधि रूपी भयङ्कर जन्तु भरे हैं । विशाल ज्वार-भाटा अपने उदर में जीवों को ले लेते हैं, उसी प्रकार यहाँ मृत्यु और जन्म रूपी ज्वार-भाटे प्राणियों को निगलते-उगलते रहते हैं। सागर में अनेकों रन भरे रहते हैं यहाँ भी योगीजन-भव्यजनों को रत्नत्रय रत्नों का पुञ्ज प्राप्त होता है । सुदृढ, छिद्र रहित, तूफानादि रहित नौका से जिस प्रकार सागर को पार किया जा मकता है उसो प्रकार जिनभक्ति की सुद्ध, राग-द्वेषादि के भकोरों रहित, संयमरूपी यानपात्र से इस संसार उदधि को पार किया जाता है। जिस प्रकार समुद्र में शेवालादि होते हैं जिनमें उलझ कर नौकाएं डूब जाती हैं उसी प्रकार संसार में पञ्चेन्द्रिय विषयों के पौवाल सदृश जाल में फंसकर दुर्गति के पात्र होते हैं अर्थात नरकादि दुर्गम दुखसागर में जा पड़ते हैं। यहाँ श्रीपाल राजा उस भयङ्कर नक्र चक्रादि से व्याकीर्ण, विशाल सागर में जा पड़ा 1 जिस प्रकार पुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग से देव मर्त्यलोक में आ पड़ते हैं । परन्तु श्रीपाल पुण्यशाली महापुरुष इस असह्य विपत्ति से तनिक भी नहीं घबराया, जिस प्रकार संसार भय से भीत योगिराज उपसर्ग परोषहो से चलायमान नहीं होते । उसने पञ्चनमस्कारमन्त्र और सर्व विपद्विनाशक सिद्धचक्र का ध्यान किया और जुट गया उभय भुजाओं से उस असीम सागर को पार करने में । जिस प्रकार भव्यपुण्डरीक जन व वीतरागो मुनिवर निश्चय और व्यवहार नय के विषयभूत निश्चय एवं व्यवहार रत्नत्रय का अवलम्बन लेकर सागरसागर को निर्भय होकर पार करते हैं, मुक्तिपत्तन को पा लेते हैं उसी प्रकार वह वीर सुभट निर्भीक कायबल और मनोवल का सहारा लेकर क्रमश. बढ़ा चला जा रहा था। पूर्वोपार्जित पुण्योदय से शनैः शनैः वह "दलवर्तन" नामक पत्तन द्वीप के निकट जा लगा । उस तट को पाकर उसका एक मास