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________________ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ] [२२५ इसका ध्यान रखता । सम्पूर्ण कार्यों में सिद्धि प्रदाता पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान सतत करते रहना । प्रयत्नपूर्वक त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांचों परमेष्टियों की सतत् पूजा, भक्ति, आराधना, जप तपादि करते रहना ।।४१।। तथा — अहो पुत्र ! सदा कार्यं सर्वत्र जिनदर्शनम् । पाप संताप सन्दोह हुताशन घनाघनम् ॥४२॥ अन्वयार्थ - - ( ग्रहो ! ) हे ( पुत्र ! ) पुत्र ! (पाप) प्रशुभकर्मरूपी ( सन्ताप) दाह के (सन्दोह ) समूह रूपी ( हुताशन ) अग्नि को (घनाघनम् ) साद्र सघन मेघों के समान ( जिन(दर्शनम् ) जिनेन्द्र भगवान का दर्शन ( सर्वत्र ) सब जगह ( कार्यम ) करते रहना । भावार्थ – कमलावती कहती हे हे सुत्र ! तुम याद रखना श्री जिन भगवान का दर्शन सघन जलभरे बादलों के समान है। संसार पापरूपी संताप की ज्वालाओं से भरा है। अतः इस संसार पीडा से उत्पन्न सन्ताप की दाह को बुझाने में जिनदर्शन ही समर्थ हैं । जिनेन्द्रप्रभु के दर्शन करते हो पाप-ताप रूपी सुबक उसी भाग होते है जिसका मयूर आवाज सुनते ही चन्दनवृक्ष से लिपटे विशाल भुजङ्ग सर्प भाग खड़े होते हैं । अतः प्रियदर्शन ! तुम प्रयत्नपूर्वक नित्य प्रति जिनदर्शन अवश्य करते रहना । सर्वज्ञ, वीतराग भगवान के दर्शन से परमशान्ति प्राप्त होती है। दुःख, दारिद्र, घोर उपसर्गादि भी नष्ट हो जाते हैं । समस्त उपद्रव पूर्णत: नष्ट हो जाते हैं ॥४२॥ तथा पुत्र विधेयो हि स्व यत्नश्च विशेषतः । जले स्थले बनेऽरण्येपुरे राजकुलेषु च ॥४३॥ विश्वासो नैव कर्त्तव्यश्चार्वाकादिषुधीधनैः । कारेषु दुष्टेषु क्रूरेषु पशु जन्तुषु ||४४ || श्रन्वयार्थ - ( तथा ) इसी प्रकार ( पुत्र) हे सुत ! (हि) निश्चय से ( जले ) नद नदी सागर में (स्थले ) द्वीपादि में (वने) अटवियों में (च) और (अरण्ये ) भयानक जङ्गलों में ( पुरे ) शहरों में (त्र) और ( राजकुलेषु) रजवाडों मे (विशेषतः ) विशेषरूप से ( स्वयत्नम् ) अपनी बुद्धि का प्रयोग ( विधेयः ) रखना चाहिए। (च) और इसी प्रकार ( द्यूतकारेपु ) आडियों (दुष्टेषु) निर्दयी मीलादि (कू रेनू ) क्रूर सिंहादि, सर्पादि (पशु) पशुओं ( जन्तुषु ) विच्छ, सर्पादि तथा (घोधनैः ) बुद्धिमानों द्वारा ( चावकादिषु ) चार्वाक प्रादि सिद्धान्तियों (विश्वास) विश्वास (नेत्र) नहीं ( कर्त्तव्यः ) करना चाहिए । भावार्थ - माता कमलावती पुत्र को शिक्षा दे रही है । हे पुत्र जल में प्रवेश करते समय पूर्ण सावधानी रखना आवश्यक है। क्योंकि शोंधी तूफान, घडियालदि द्वारा उपद्रव की संभावना हो सकती है । द्वोपादि में प्रविष्ट होते समय भी सावधान रहना परमावश्यक है, ठग-लुटेरे आदि कष्ट दे सकते हैं। वन में अग्नि वस्यु, अन्धकार मार्गभ्रमादि से आपत्ति मा
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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