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[ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद
(चित्त) मन में ( गमने जाने के विषय में (तन ) वह ( निश्चितम् ) निश्चित है ऐसा ( मत्वा ) मानकर या समझकर ( सुतम् ) पुत्र के प्रति (संजगाद ) बोली (गुणमन्दिरे ! ) हे गुणसागर (पुत्र) बेटा ( त्वम् ) तुम (ऋण) सुनो ( सुधीः) हे बुद्धिमन् ( साम्प्रतम् ) इस समय ( त्वया ) तुम्हारा ( गन्तव्यम्) गमन ( सर्वथा ) पूर्णतः निश्चित ( चत् ) यदि है तो (त्वम् वण) तुम सुनो।
स्मोसिस भक्तोऽसि जिनशासने ।
कि ते वाक्यं तथाप्युच्चर्मातुः स्नेहोवदत्ययम् ॥४०॥
श्रन्वयार्थ ( त्वम् ) तुम ( धर्म:) धर्मात्मा (प्रसि) हो ( शूरः ) महाभट ( असि ) हो ( जनणासने ) जिनशासन में ( भक्तः ) भक्तिवान (असि ) हो (ते) तुम्हें (वाक्यम् ) कहने को ( किम् ) क्या है ? ( तथाऽपि ) ऐसा होने पर भी (उच्च) विशेष ( मातुः ) माता का ( स्नेह : ) प्रेम (अयम ) यह (बदति ) कहता है।
भावार्थ - श्रीपाल ने अपनी श्रद्धेया जननी से व्यापारार्थं गमन का निश्चय प्रकट किया । गमन की आज्ञा मांगी। माता ने शोक विह्वल होने पर प्रिय पुत्र का गमन निश्चय अवगत कर उसे रोकना उचित न समझा । वह हर एक लौकिक विधि-विधान की ज्ञाता थी। समयानुसार प्रवृत्ति करने में दक्ष थी । अतः कमलावती ने सम्यक् प्रकार समझ लिया कि इसका विचार पक्का है । तब उसने पुत्र के श्राशय के अनुसार उससे कहा, हे पुत्र तुम महा गुलन हो, नीति वान हो, धर्मज्ञ हो, श्रेष्ठ भटोत्तम हो, सदा जिनशासन के परमभक्त हो, हे भद्र ! यदि इस तुम्हारा जाना निश्चित ही है तो सुनो, यद्यपि उपर्युक्त प्रकार तुम सर्वगुरण, कला, विज्ञान, धर्मनात कुशल हो, तो भी मातृ हृदय का बात्सल्य स्रोत आपको कुछ कहना चाहता है माता का स्नेह इस समय मीन नही रह सकता। अतः मैं कुछ कहती हूँ । तुम तदनुसार प्रवृत्ति करना । अपना और धर्म का संरक्षण करते हुए विदेश में बिहार करना ।।३८, ३९, ४० ।।
सर्वदा सर्वत्तेन सर्वकार्येषु सिद्धिदाः ।
समाराध्यास्त्वया चित्त े श्रीपञ्चपरमेष्ठिनः ॥ ४१ ॥ |
अन्वयार्थ - - हे भद्र ! ( सर्वकार्येषु ) इहपरलोक सम्बन्धी सर्व कार्यों में (सिद्धिदा: ) सिद्धि देने वाले (श्री पञ्चपरमेष्ठिनः । पञ्चपरमेष्ठी भगवान (त्वया) तुम्हारे द्वारा (चित्त) चित्त में ( सर्वयत्नेन ) सर्व प्रकार प्रयत्नकर ( सर्वदा ) हमेशा ( समाराध्या ) आराधन-स्मरण करते रहना चाहिए ।
भावार्थ - शूर, वीर, धर्मात्मा पुत्र प्रसविनी सवित्री मां पुत्र को शिक्षा आदेश दे रही है, हे पुत्रक ! तुम परदेश में अपने कुल, वंश, जाति एवं धर्म की मर्यादा का उलंघन नहीं हो