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श्रोपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद]
[ २५१ अन्वयार्थ ---(दुखदारिद्रय) दारिद्रय जन्य दुःख को (हारिरिंग) हरण-नाश करने वाली (बहुभिः) बहुत से (भेदैः) प्रकारों से निमित (नैवेद्यः) नैवेद्यों, चरुओं से (अखिल) सम्पूर्ण (जिङ्ग निशा कोपीविता) प्रकाशित करने वाले (रत्नक' रदीपोधे:) रत्नकपूर आदि के दीपों से (सौभाग्यदायक) सुख सौभाग्य सम्पत् प्रदायक (कृष्णागरु) कृष्ण अगरु आदि से (समुद्भूतः) उत्पन्न निर्मित (धूपैः) धूप से (मुक्तिफलप्रदै:) मुक्तिरूपी फल के देने वाली (नालिकेराम्रजम्बीरैः) नारियल, प्राम, बिजौरादि (फलैः) फलों से, (सुखाकरः) सुखदायक (वस्तुसारैः) उत्तम-उत्कृष्ट पाठों द्रव्यों के समूह रूप (अादिभिः) अर्घ्य आदि से (समभ्यर्च्य ) पूजा करके (शर्म) शान्ति (सन्दोह) सुखसमूह (दायनीम )देने वाली (च) और (स्तुति) स्तुति (सञ्चकार) करना प्रारम्भ किया।
भावार्थ--जो भव्यात्मा नैवेद्य से पूजा करता है उसे कभी भी दारिद्रय जन्य पीडा नहीं होती। उस श्रीपाल महाराज ने अनेकों प्रकार की सुस्वादु मधुर चरुओं नैवेद्यों से श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा की । गोला की चटक नवेद्य नहीं होती, अपितु घत, शक्करादि से बनाये भोज्य पदार्थ नवेद्य कहे जाते हैं अर्थात् लाडू, पूरी, रोटी, भात, रसगुल्ला आदि। ये स्वयं शुद्धता पूर्वक ताजे बनाना चाहिए। रत्न, एवं कर्पूर तथा घृतादि के दीपों से श्री जिनदेव की पूजा की । यह दीपपूजा मोह काम मद का नाश करने वाली होती है । सुगन्धित शरीर और सौभाग्यवर्द्धक दशाङ्गादि धूपों से पूजा की । मुक्ति रूपी फल को देने वाली श्रीफल, आम, अनार केलादि फलों से उत्तम अर्चा की। तथा अनध्यपद प्रदाता अनेकों शुभ सुन्दर पदार्थों से मिश्रित अर्ध्य से अर्चना कर प्रभु की स्तुति करना प्रारम्भ किया । अर्थात् जिनराज गुनगान करने लगा--।।११६-१२०-१२१।।
जय त्वं जिन सर्वज्ञ वीतराग जगद्धित । जय जन्मजरातपर प्रक्षालन क्षम ॥१२२॥
अन्वयार्थ - (जिन) हे जिन, (सर्वज्ञ) हे सर्वज्ञ (वीतराग) भो वीतराग, (जगद्धित) हे संसार हितकर्ता (त्वम्) आप (जय) जयशील हों (जन्मजरातङ्कप्रक्षालन ) जन्म, बुढापा और मृत्यु के नाश करने में (क्षम) समर्थ प्रापकी (जय) जय हो ।
भावार्थ हे जिनेश्वर. सर्व के ज्ञाता, मोहकर्मधाता वीतरागप्रभो ! पाप ही समस्त संसार के कल्याण करने वाले हैं पाप सतत जयशील हों । प्रापही जन्म, वृद्धत्व और मरण का नाश करने में समर्थ हैं, आप सतत जयवन्त रहें ।
अ पकी जय हो, जय हो ।।१२२।।
जयदेव जगद्वन्द्यपादपद्मद्वयप्रभो । जय निश्शत निर्द्वन्द्व निर्मक प्रभुताप्रद ॥१२३॥