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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
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दश धर्म निम्न प्रकार हैं--
(१) उत्तम क्षमा - क्रोध के कारण उपस्थित ह भी श्रोध नहीं करना उत्तमक्षमा है । अर्थात अपराधी के प्रति प्रतिशोध या वदले का भाव नहीं आना उत्तम क्षमा है।
(२) उत्तम मार्दव - "मृदो वः मार्दवः" परिणामों में मान अहंकार नहीं आने देने को उत्तम मार्दव कहते हैं।
३. उत्तम प्रार्जब:-छल कपट का सर्वथा त्याग करना उत्तम प्रार्जव धर्म है। बालकवत् सरल परिणामी होना उत्तम आर्जव धर्म है।
४. उत्तम शौच:-लोभ का त्याग करना उत्तम शौन है । लोभ लालच पर वस्तु के ग्रहण का भाव आदि सब लोभ के पर्यायवाची हैं । अत: सर्वथा मुर्छा भाव का त्याग करना उत्तम शौच धर्म है।
५. उत्तम सत्यः सम्पूर्ण रूप से नवकोटि से असत्य भाषण का त्याग करना उत्तम सत्य धर्म है।
६. उत्तम संयमः-पांचों इन्द्रियों और मन का पूर्णतः दमन करना अर्थात् इनको अपने आत्मधर्म के अनुकूल प्रवर्तन करने को बाह्य करना षट्काय जीवों की विराधना का सर्वथा त्याग करना उत्तम संयम धर्म है ।
७. उत्तम तप:-आभ्यन्तर और वाह्य के भेद से तप दो प्रकार का है। आभ्यन्तर तप के छ भेद हैं। "प्रायश्चित्त विनय बयावत्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यानान्युत्तरम्' (त० सू० अ०६) ये ६ अन्तरङ्ग तप हैं । अर्थात् लगे हुए दोषों की निवृत्ति के लिए गुरुदेव से दण्ड लेना प्रायश्चित है।
२. विनयः—देव शास्त्र गुरु और रतन्त्रय में विनय करना ।
३. वैयावृत्तिः-- बाल, वृद्ध, रोगी, साधुनों की बिना ग्लानि के उत्साह पूर्वक सेवा सुश्रुषा करना।
४. स्वाध्याय:- अनेकान्त सिद्धान्तानुसार प्रागमनन्थों का तत्वों का पठन-पाठन स्वाध्याय है।
५. व्युत्सर्गः - शरीर से ममता भाव त्याग करना।
६. ध्यानः- सम्पुर्ण मन और इन्द्रियों को वश में कर एकाग्र रूप से प्रात्मस्वरूप में लीन होना।
"अनशनाबमौदर्य वृत्ति परि संख्यान रस परित्याग विविक्त शय्यासन कायक्लेशा याह्य तपः" ।।१६।। त० सू० अ०६।
(१) उपवास करना - चारों प्रकार के अन्न जल आहार का त्याग करना भनशन है। (२) अल्प अाहार करना अवमोदर्य तप है।