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[श्रीपाल चरित्र पष्टम परिच्छेद समक्ष प्रकट किया। उसके निर्णय और निश्चय को सुनकर कमलावती कहने लगी प्रिय बेटी! हे बधूटि के ! यह क्या कहती हो ? मेरा पुत्र सामान्य पुरुष नहीं है वह नरपुङ्गव है, विद्या का धनी है, सत्य का प्रतिपालक है, जिनागम का कीडा है, अहर्निश जिनागम के अनुसार चलने वाला है । क्या कभी सुमेरुपर्वत अपने स्थान से चल विचल होता है ? क्या कभी सागर अपनी मर्यादा-सीमा छोड सकता है ? नहीं कदापि नहीं। उसी प्रकार मेरा पुत्र अन्यथा वादी नहीं हो सकता । वह कभी असत्य भाषण नहीं कर सकता । हे बाले ! निर्विकार सुकुमारी मेरी बात सुनो और उस पर विश्वास करो, मानों। अभी तुम धर्मध्यान पूर्वक मात्र चार दिन घर में रहो इसके बाद मागास हो तुम्हारी न काम पूई होगी । और पुत्र प्रायेगा यह निश्चित समझो ॥११५ से ११७।। कमलावती पुन: अपनी प्रिय पुत्रवधू को समझाती हुयी कहती है
श्रूयते परचक्रं च समायातं सुदारुणम्
पश्य पुत्री पिता ते च साम्प्रतं किं करिष्यति ॥११८। अन्वयार्थ -(पुषि ! ) हे पुत्रि ! (श्रूयते) सुना है (सुदारुणम् ) महाभयङ्कर (परचक्रम ) शत्रुदल (समायातम् ) आया है (च) और भी (पश्य) देखो (साम्प्रतम ) इस समय (ते) वे तुम्हारे पिता (किम् ) क्या (करिष्यति) करेंगे ! (च) और पुन: मैना सुन्दरी कहने लगी
ततो मदनसुन्दर्या पुनः प्रोक्त च तां प्रतिम् ।
भो मातम स्फुरत्युच्चश्चक्षुर्बाहुश्च वामकः ॥११६।। अन्वयार्थ-(ततो) कमलावतो जब कह रही थी उसी बोच में (पुनः) फिर से (मदनसुन्दर्या) मदनसुन्दरी (ताम् ) उसके (प्रतिम् ) प्रति (प्रोक्तम) बोली (भो) हे (मात) माता जी (में) मेरी (वामकः) बायो (चक्षुः) आँख (च) और (बाहुः) भुजा (उच्चः) तेजी से (स्फुरति) फडक रही है ।।११६॥
भर्ता मे श्रेयसांकर्ता सुभक्तो जिनशासने ।
दूरे सन्तिष्ठते मातस्संयोगः कीदृशो भवेत् ॥१२०।। अन्वयार्थ-~-(श्रेयसाम) कल्याणों के (कर्ता) करने बाले (जिनशासने) जिनशासन में (सुभक्तः) अत्यन्त भक्त (मे) मेरा (भर्ता) बल्लभ-पतिदेव (दूरे) अति दूर (सन्तिष्ठते) ठहरे हैं (मातः) हे माते ! आप ही कहो (संयोगः) समागम (कीदृशः) किस प्रकार (भवेत्) होवे ?
भावार्थ - श्रीपाल महामण्डलेश्वर की मातु श्री कमलावती अपनी पुत्रीवत् प्रिय पुत्रबधु को समझाती है। बेटी सुनो, सुना है कि महादारण, भयङ्कर परचक्र ने आक्रमण किया