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से कोड हुअा अर्थात् तुम कुष्ठी हुए पुनः कुछ दिनों के बाद किसी तपस्वी मुनिराज को तालाब में डालकर फिर निकाल लेने से इस भव में तदनुसार तुम्हारा भी समुद्र में पतन हुना तेरकर समुद्र पार कर गये, मुनिराज को चाण्डाल कहने से तुम चाण्डाल बनाये गये । पुनः वह श्रीकान्त राजा श्रीमती रानी के द्वारा सम्बोधित करने पर बहुत पश्चाताप को प्राप्त हुआ तथा गुरु से प्रायश्चित ग्रहण कर सिद्धचक्र व्रत स्वीकार कर विधिवत व्रताचरण, कर उद्यापन कर, अन्त में समाधिमरणकर उत्तम शतारेन्द्र देव हुआ अर्थात ११वे स्वर्ग में उत्पन्न हुया और श्रीमती उसकी इन्द्राणी हई । वहाँ से च्युत होकर तुम दोनों श्रीपाल और मदनसुन्दी हुए। इस प्रकार मुनि निन्दा का दुष्पपरिणाम और बत पालने के महान् फल को भी इस परिच्छेद में दर्शाया है।
दशम परिच्छेद में श्रीपाल महाराज के श्रेष्ठ राज्य शासन, राज्य वैभव, सिद्धचक्र पूजा विधान का वैशिष्ट्य तथा वन में सरोवर के तट पर पङ्कमग्न मृत गज को देखकर श्रीपाल का विरक्त होना-बारह भावनाओं का चिन्तन और महीपाल पुत्र को राज्य समर्पण, सुव्रताचार्य से दीक्षा ग्रहण, घोर तप, घातिया कर्मों का नाश कर केवली होना, गंधकुटी की रचना, दिव्यध्वनि कर्मनाश कर मोक्षप्राप्ति का सुन्दर विवेचन है । मदनसुन्दरी का भी दीक्षा लेकर तपकर, स्त्रीलिङ्ग का छेदन कर, बारहवें स्वर्ग में देवेन्द्र होना और एक भव धारण कर भविष्य में मोक्ष प्राप्त करने का भी सम्मुल्लेख है।
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