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________________ [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद नहीं होते थे । सामाजिक राजकीय, नगर प्रामकृत तथा शत्रु कृत उपद्रवों से उनका चित्त दूषित नहीं होता था । अपूर्व धृतिबल आदि की अपेक्षा से वे समुद्र के समान गम्भीर थे॥६४।। जिनेन्द्रचरणाम्भोजसेवनकमधुव्रतः । यो भवन्मुनिपादाब्जरजो रञ्जितमस्तकः ॥६५॥ अन्वयार्थ--(यो) जो अर्थात् बह श्रेणिक (मुनिपादाब्जरजो रजितमस्तक:) मुनिगणों के चरण कमलों की रज से रजित मस्तक वाला (जिनेन्द्रचरणाम्भोज सेवन) जिनेन्द्र प्रभु के चरण कमलों की सेवा में (भवन) रहता हुआ (एक) एक अर्थात् अपूर्व अद्वितीय जिन भक्त था (मधुव्रतः) अथवा वह मधुकरों के समूह तुल्य था । भावार्थ-जिस प्रकार पधुकर पार का प्रेमी होता है। पष्प की सुगन्धी को पाकर वह आनन्द विभोर हो जाता है, उसी प्रकार राजा अंणिक महाराज जिनदर्शन के अभिलाषी प्रेमी थे । उन्हें जिनचरणाम्बुजों को पाकर अतुल सुख आनन्द का अनुभव होता था । उनको दृष्टि में धर्मानुष्ठान से प्राप्त सुख, पञ्चेन्द्रिय विषय सुख से अनन्तगुणा अधिक था। पंचेन्द्रिय विषयों का सुख तो क्षणिक और दुःखोरपादक है पर धर्माचरण से प्राप्त सुख, दुःख का बिघातक और स्थाई सुख की स्थापना करने वाला है । अस्तु श्रेणिक महाराज देव शास्त्र मुरु को भक्ति में अपने को निरन्तर रजायमान रखते थे । यद्यपि वे राज्य की सुरक्षा, देखरेख भी करते थे पर उनका चित्त उसमें रजित नहीं होता था ।।६।। लसकिरीटमाणिक्यदिव्यवस्नरलंकृतः । पर्यटन कल्पवृक्षो वा यो बभौ तोषिताखिलः ॥६६॥ अन्वयार्थ-- (किरीटमाणिक्यः लसत्) मणिमुक्ताओं से जडित मुकूट से शोभायमान (दिव्ययस्त्रैरलंकृतः) दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत तथा (तोषिताखिलः) सम्पूर्ण याचकों को सन्तुष्ट करने वाले (पर्यटन कल्पवृक्षो वा) चलते फिरते कल्पवृक्ष के समान (यो वी) जो अर्थात् वे श्रेणिक महाराज शोभते थे । भावार्थ--जिस प्रकार भोग भूमि में अवस्थित रत्नभय कल्पवृक्षों को प्रभा सुर्य से भी अधिक होतो है उसी प्रकार मुकुट दिव्यवस्त्रादि से अलंकृत राजा अंणिक का तेज वा प्रभाव भी अधिक था । जिस प्रकार कल्पवृक्ष इच्छित वस्तु को प्रदान कर याचकों को सन्तुष्ट कर देता है उसी प्रकार श्रेणिक महाराजा भी वाञ्छालु को उसकी इष्ट वस्तु देकर सन्तुष्ट कर देते थे। अतः वे वस्तुतः चलते फिरते कल्पवृक्ष के समान दीखते थे ।। ६६ ।। हस्त्यश्वरथपादाति छत्रसिंहासनाविभिः । महामण्डलनाथोऽसौ यो भाश्चक्रधरो यथा ॥६७।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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