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________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद | भावार्थ संसार में कल्पवृक्ष चिन्तामणि और कामधेनु सर्वत्र उपमार्थ प्रस्यात हैं पर ये उपमायें राजा श्रेणिक को नहीं दी जा सकती हैं, क्योंकि वह इनसे अधिक प्रभावशाली है । कल्प वृक्ष 10 प्रकार के हैं-१ भोजनाङ्ग २ वस्वान ३ पानाङ्ग ४ भाजनाङ्ग ५ गृहाङ्ग ६ ज्योतिराङ्ग ७ मालाङ्ग ८ दोषाङ्ग ६ वादित्राण और १० आभूषणाङ्ग । इनसे क्रमश: मनुष्य इच्छानुसार भोजन वस्त्र, पान (पीने की वस्तु) पात्र. घर, प्रकाश, मालाय, दीपक, वाजे और आभूषणादि मांग लेते हैं । चिन्तामणि से चिन्तित बस्तु मिल जाती है । कामधेनु भी कामना पूर्ण करने में समर्थ कही जाती है, पर क्या उस श्रेणिक राजा को इनकी उपमा दी जा सकती है ? नहीं। क्योंकि कल्पवृक्ष सभी पृथ्वीकाय हैं, चिन्तामणि रत्न भी जड़ हैपाषाण विशेष है ओर' कामधनु नोच गोत्रस्य पशु जाति है परन्तु महाराजाधिराज श्रेणिक, पञ्चेन्द्रिय मनुष्योत्तम हैं, उच्च कुल, गोत्र, शुद्ध जाति वंश परम्परा सम्पन्न हैं । अतएव कल्पवृक्ष चिन्तामणि और कामधेनु से भी बढ़कर वे महाराज बिना याचना विना विचारे जनता की मनोकामना पूर्ण करते थे । मनमाना दान देते थे । उनके राज्य में न कोई याचक था न दीन दरिद्री, न रोगी न शोकी । सब सानन्द, धर्म प्रेमी, कर्तव्यनिष्ठ, सत्यवादी, संयमानुरागी और संतोषी थे । वे भोगोपभोग के प्राचुर्य में भी विबेक और संयम का उपयोग करते थे । उनके कान जिन बचन-मुनि वचन, धर्मोपदेश सुनने में रत रहते थे । नेत्र जिनमुखाबलोकन, गुरु दर्शन, तीर्थक्षेत्र दर्शन को आतुर रहते थे, रसना जिन स्तवनादि में, घ्राण, जिनचरणाम्बुजों में चचित गंध केशर की सुवास में और शरीर जिनपूजन, भक्ति, नृत्य, गान, संगीत में रत रहता था। सभी इन्द्रियों के भोग सीमित और आनुपातिक थे । अत: वह श्रेणिक राजा अदितीय, उपमातोत और महान था ।। ६३ ।। यो विज्ञानी सुधी ज्ञाता दाता वाञ्छालुरेकतः । गम्भीरस्सागरश्चापि महिम्ना मेरुतो महान् ॥६४।। अन्वयार्थ (यो) जो अर्थात वह श्रेणिक राजा (सुधी) ज्ञानी विवेकशील (वाञ्छालुरेकत: दाता) वाञ्छालु भव्य जीवों को सन्तुष्ट करने में अकेले ही समर्थ दाता था । (गम्भीरः सागरपच) और सागर जसा गम्भोर महिम्ना) महिमा को अपेक्षा (मेमतोऽपि महान्) मेरु से अधिक मसन् था । भावार्थ-राज्य संचालन के साथ-साथ, राजा श्रेणिक धर्म कार्यों में भी सतत साबधान और प्रयत्नशील थे। तत्वचिन्तन, स्वाध्याय, ध्यान, दान पूजा आदि में सोत्साह तत्पर रहते थे । जिस प्रकार गङ्गा नदी का प्रवाह तथा उसका पवित्र जल आरोग्यकारी, मधुर शीतल और प्यास को बुझाने वाला होता है उसी प्रकार राजा श्रेणिक याचकों को उसके लिये समस्त इष्ट सामग्री को देने में अकेले ही पूर्ण समर्थ थे । समुद्र के समान गम्भीर राजा श्रेणिक अनेक असंख्य गुणों की खान थे । यथा समुद्र में सब तरफ से गन्दे नालों का जल तथा कूड़े कचरों के साथ बहती नदियों का जल मिलता रहता है पर उससे समुद्र की स्वच्छता निर्मलता का अभिघात नहीं होता है, उसी प्रकार श्रेणिक महाराज नाना उपद्रवों के होने पर भी क्षुब्ध
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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