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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद भावार्थ-भास्कर देव के उदयाचल पर आते ही जिस प्रकार रात्रिजन्य सघन अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार महाराज श्रेणिक के न्यायनोति सदाचार द्वारा अन्याय और कुमार्ग रूपी अन्धरा नष्ट हो गया था अर्थात उसके प्रभुत्व से कोई भी सत्पथ का उल्लंधन नहीं करता था परस्पर कालह बिसवाद नहीं था । पारस्परिक प्रेम स्नेह बढ़ रहा था । आमोद प्रमोद से प्रजा रहती थी। सभो आज्ञाकारी विनयो दयालु, उत्साही धर्मपरायण और जिनभक्त थे । भूपति श्रेणिक के प्रताप से शत्रुगण अनायास मित्र हो गये । उसके सद्व्यवहार से उसके आधीन हो जाते थे। विजित राजाओं के साथ वह दुर्व्यबहार नहीं करता था। आज्ञाधीन कर उनका राज्य वैभव उन्हें ही प्रदान कर देता था। इस प्रकार उदार मनोवृत्ति, त्याग भाव, वात्सल्य भावना से राजागण उसके सेवक बन गये थे। उसकी आज्ञा को सहर्ष स्वीकार करते और अपने को धन्य समझते थे ।। ६१ ॥
नित्यं सः शान्तभावेन स्वकान्त्या यशसाश्रिया ।
निर्दोषेरण व्यजेष्टोच्चैश्चन्द्रबिम्बं सलाञ्छनम् ॥६२।।
अन्वयार्थ-(शान्तभावेन) कषायों को मन्दता या क्षमाभाव से (स्वकान्त्या यशसा) अपनी सुन्दर कान्ति और कोति से (निर्दोषेणश्रिया) न्यायोपात्त लक्ष्मी से (स) उस राजा श्रेणिक ने (नित्यं) निश्चय ही (सलाञ्छनम्) कलङ्की (चन्द्रबिम्ब) चन्द्रबिम्ब को (व्यजेष्ट उच्चैः) निश्शेष रूप से जीत लिया था।
भावार्थ-चन्द्रमा की कान्ति क्रमश: मन्द अथवा तीव्र होती रहती है किन्तु इस श्रेणिक राजा की कान्ति सतत तेजोमय थी । चन्द्रमा की एक एक कला क्रमशः शुक्ल पक्ष में बढ़ती है और कृष्णपक्ष में हीन होती जाती है परन्तु उस राजा की यश रूपी कलायें निरन्तर वृद्धिगंत ही होती रहती थीं । चन्द्रमा का प्रताप दिन में सूर्य के प्रकाश में छिप जाता है किन्तु महाराजा श्रेणिक का प्रताप अपने प्रतिपक्षो शत्रु को पाकर और अधिक द्विगुणित हो उठता था। चन्द्र तो लाञ्छन युक्त है, संसार में कलजी कहलाता है लेकिन इस राजा का यश और न्यायोपात्त लक्ष्मीपूर्ण निर्दोष थी । अथवा कलङ्क रहित थी। इस प्रकार उस राजा ने अपने प्रभाव, शान्त व्यवहार, यश, लक्ष्मी और कान्ति से चन्द्रमा को भी तिरस्कृत कर दिया था । चन्द्रमा को उपमा उसे नहीं दी जा सकती है । वह महागुणज्ञ और नीतिज्ञ था । उसके समक्ष चन्द्रमण्डल क्षीण प्रताप और तुच्छ था ।। ६२ ।।
कल्पवृक्षो जडश्चिन्तामणिः पाषाण एव च ।
कामधेनुः पशुः किं तैस्समोऽयं क्रियते नृपः ।।६३।। अन्वयार्थ - (कल्पवृक्षः) इस प्रकार के कल्पवृक्ष (जड:) अचेतन पृथ्वीकाय है (च) और (चिन्तामणिः) चिन्तामणि रत्न (पाषाण एवं) एक प्रकार का पत्थर ही है (कामधेनुः पशुः) कामधेनु पशु है (कि अयम् नृपः) क्या यह राजा (तेः समो) उनके समान (क्रियते) किया जा सकता है ? अर्थात नहीं किया जा सकता है ।। ६३ ।।