SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद] [४७५ अनन्तर किसी एक समय वह महा भयङ्कर अटवीं में गया। वहां उसने एक महातपस्वी जल्लीषधि आदि ऋद्धियों एवं अवधिज्ञान लोचनधारी दिशारूपी बस्त्रों से जो अलङ्कृत थे उन मुनीन्द्र को ध्यानस्थ देखा । तोव पाप कर्म के उदय से उसने परमवीतरागी मुनीराज को देखकर अज्ञानवश कहा कि देखो यह महाकोही है। उस समय उसके साथ सात सौ महावीर अङ्गरक्षक सभट थे उन्होंने भी इसो निद्यवाक्य का समर्थन किया कि हाँ हाँ यह निश्चित ही कोट रोग से व्याप्त है । उस दुर्वाक्य स उत्पन्न घोर पाप से आप इस भव में उन सातसौ भटों के साथ आप भयङ्कर दुःखकारक कुष्ट रोग से पीडित हुए । अत: हे भूपते ! कभी भी भूलकर भो प्राण जाने पर भी यतियों दिगम्बर साधुनों की निन्दा नहीं करना चाहिए । क्योंकि गुरु निन्दा से जीव भव-भव में कठोर यातनाओं का पात्र बनता है। वर्तमान युग में कुछ पन्थ व्यामोही अज्ञानान्धकारवश निर्दोष, दिगम्बर साधनों की निन्दा करने में ही अपना गौरव समझते हैं उन्हें इस श्रीपाल के पूर्व जन्म की घटना से शिक्षा लेना चाहिए । अन्य को नहीं तो कम से कम स्वयं अपने को नो धोखा देने का त्याग करना चाहिए । साधु पीर साधुसंघ का अवर्णवाद करने से बचना चाहिए ॥२२ से २५।। प्रथान्येधुस्सरस्तीरे कायोत्सर्ग स्थित मुनिम् । निजामध्यात संत्रीनं मुक्ति श्रीचित्तरञ्जकम् ॥२६॥ रष्ट्व] पापधीः पापात् स निक्षिप्य सरोवरे । पुनस्तस्मात् समाकृष्य ममोच यतिनायकम् ॥२७॥ तेन पापेन भूपस्त्वं निक्षिप्तरतर्महाम्बुधौ । जीवितो निर्गतस्तस्मात् भुजाभ्यां यतिमोचनात् ।।२८।। अन्ययार्थ (प्रथ) इस घटना के बाद (अन्य ) दुसरे (:) दिन (सरस्तीरे) सरोवर के किनारे पर (निजात्मध्यानसंलोनम ) स्त्रात्मध्यान में तल्लीन (मुक्तिथोचित्तरञ्जकम्) मोक्ष लक्ष्मी के मन को प्रसन्न करने वाले (कायोत्सर्गस्थितम ) कायोत्सर्ग खडगासन से स्थित (मुनिम ) मुनिराज को (हष्ट्वा) देखकर । सः) उस श्रीकान्त राजा (पापाधी:) पापी में (पापात पापोदय से उन मुनि को (सरोवरे) तालाब में (निक्षिप्य ) फककर (पुनः) फिर (तस्मात्) उस तालाब से (समाकृष्य) खींचकर-निकालकर (यातिनायकम् ) मुनिराज को (मुमोच) छोड दिया (भूप !) हे श्रीपाल भूप (लेन) उस (पापेन) पाप से (त्वम ) तुम (महाजधौ) घोर सागर में (तेः) उन व्यापारियों द्वारा (निक्षितः) डाले गये (यतिमोचनात्) मुनिराज को वापिस निकालने से (भुजाभ्याम ) हाथों से तर कर (तस्मात् ) उस सागर से (जोवितः) जीवित (निर्गत:) निकला। ___ भावार्थ -मुनिराज को कुष्ठी कहने की घटना के बाद किसी एक दिन उस राजा श्रीकान्त ने उद्यान में विशाल सरोवर के तट पर एक महातपस्वी मुनिराज जी प्रात्मध्यान में तल्लोन थे, देखा । वे कायोत्सर्ग मुद्रा से ध्यान करने में लीन थे कि उसने पापबुद्धि से अज्ञानवश
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy