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________________ ३६४] श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद (गत्वा) महाराज श्रीपाल के पास जाकर (प्रभु नत्वा) स्वामी को नमस्कार कर (तत् सर्व उस सम्पूर्ण स्वीकृति रूप वचन को (संजगाद) कह दिया। ___ मावार्थ- प्रजापाल राजा ने, इस प्रकार दूत को, स्वीकृति रूप सन्तोपकारी वचनों से और वस्त्राभरण आदि उपकरणों से प्रसन्न कर महाराज श्रीपाल के पास भेज दिया दुत ने भी अपने स्व. रामाश्रीप.ला बोलानुरक्षा समावृति का वचन कह दिया तथा प्रभु को नमस्कार कर विनम्रता पूर्वक सम्पुर्ण वृतान्त कह कर राजा के चित्त को हर्षित करने वाला हा ।।१६।। तन्निशम्य दयालुत्वात् सुधीविताशयः । श्रीपालो युक्तिमद्याक्थैः कोपशान्तिं विधाय च ।।१६४॥ स्वकान्तायाः निजप्राणप्रियायास्सुखदायकः । श्रीमज्जिनपदाम्भोज सद्भक्तस्संजगौ पुनः ॥१६५।। दूतं त्वं याहि ते भूपं कथयेति प्रभो ध्र वम् । गजमेनं समारूह्य विभूत्या गच्छ भूपते ॥१६६। भावार्थ-(तन्निशम्य) दूत के उस वचन को सुनकर (सुधीः) बुद्धिमान (गदिताशयः) स्वाभिमानी (श्रीमज्जिनपदाम्भोजसद् भक्तः) श्रीजिनेन्द्र प्रभु के चरण कमलों का सञ्चा भक्त (सुखदायकः) सुखदायी (श्रीपालो:) श्रीपाल (दयालुत्वात् ) दया भात्र से (युक्तिमद् वाक्यः) युक्ति युक्त वाक्यों से (निजप्राणप्रियायाः) अपनो प्राण प्रिया (स्वकान्तायाः) स्वकान्ता मैनासुन्दरी के (कोपशान्ति विधाय च) क्रोध को शान्त करके (पुनः) फिर (दूतं संजगी) दूत को बोला (त्वं याहि) तुम जानो (तं भूपं) उस प्रजापाल राजा को (इति कथय) ऐसा कहो (भूपते ! प्रभो) हे भूपति, हे राजन् (एनं गजं समारूह्म इस हाथी पर चढ़कर (विभूत्या) (गच्छ) जानो। भावार्थ - दुत के उस विनय युक्त शिष्ट वचन को सुनकर परम बुद्धिमान् स्वाभिमानी श्रीजिनेन्द्रप्रभु के सच्चे भक्त, समस्त प्राणीमात्र के लिये सुखदायक मनोज्ञ श्रीपाल महाराज ने दया से अभिसिञ्चित चित्त वाला होने से क्रोध को छोड़ दिया और युक्ति युक्त वाक्यों से अपनी प्राण प्रिया स्वकान्ता मैना गुन्दरो को सन्तुष्ट कर पुनः दूत से कहा कि तुम जानो और प्रजापाल राजा को ऐसा कहो कि हे स्वामी ! आप इस हाथी पर सवार होकर बड़ी बिभूति के साथ महाराज श्रीपाल के पास जाओ।। गदित्वेति स्वकीयञ्च प्राहिणोद्भद्रहस्तिनम् । सत्यमासन्नभव्यानां कोपो नैव स्थिरो भवेत् ॥१६७।। अन्वयार्थ - (गदित्वा इति) ऐसा कह कर (स्वकीयं) अपने (भद्र हस्तिनं च) और
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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