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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद]
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कोकशास्त्राणि चित्रारिग काम-कारिणि कामिनी ।
प्राणीनां प्राण हारीणि नरमेधादिकानि च ॥४६॥ ___ अन्वयार्थ- (कोक शास्त्रारिंग) कोक शास्त्र (चित्राणि) चित्रकला (काम कारिणि कामनी) काम कथाओं को पुस्तके (त्र) ओरः प्राणिहारी ) जीयों के प्रारण नाश करने वाले (नरमेधादिकानि) नर मेध यज्ञ आदि तथा
अश्वमेधममेध्यं वा गजमेघमयोगतेः। कारणं पाप-शास्त्राणि पठितानि तया तथा ॥५०॥ गोयोनि-स्पर्शनं पुण्यं यज्ञगो छागहिसनम् । तच्छेष भक्षरणं यज्ञे मद्यपानं च पापकृत् ।।५१॥ राजसूयाविक कर्म घृतयोन्यादिकं तथा । सोमपानं. जल स्नानं केवलं धर्म हेतवे ॥५२॥ एणखङ्गिमहिष्याणां मांसनव विशेषतः । श्राद्धे च पितृवर्गस्य तर्पगं प्राणिमारणम् ।।५३॥ मन्त्र तन्त्रादिकं कर्म सर्व कर्मनिबन्धनम् ।
मिथ्यादृष्टि कुविण पाठिता सा मदोद्धता ॥५४॥
अन्वयार्थ--(सा) वह सुर सुन्दरी (मदोद्धता) मद ज्ञानमद से उद्धत थी (मिथ्या दृष्टि कुवित्रंण) उस मिथ्या दृष्टि खोटे ब्राह्मग (अश्वमेधममेध्यं वा गज मेधमयोगतेः कारणं पाप शास्त्रारिंग) अश्वमेध यज्ञ, अमेध्ययज, गजयज्ञ, बकरादि यज्ञ, पाप के कारण भूत शास्त्र, (तया) उस कन्या के द्वारा (पठितानि) पढ़े गये। (तथा) और भी (गौयोनि स्पशर्म पुण्यं) गाय की योनि का स्पर्श करना पुण्य है (गो छागहिंसनम्) गाय बकरा की हिंसा कर यज्ञ करना (यज्ञ) यज्ञ में (लच्छेष) बाको बचे (पापकृत) पाप के कारणभूत (मद्यपान) सुरापान करना (राजसूयादिक कर्म) राजसूय यज्ञ (वृतयोन्यादिक) योनि पूजादि (तथा) और (सोमपानम्) शराब पीना (धर्म हेतवे) धर्म के लिए (जलस्नानम् ) जलस्नान, नदी सागर, में नहाना (केवलम् ) मात्र (एगाखङ्गि महियाणाम् ) भंसादि की बलि चढाना (विशेषतः) विणेषकर (मांसेनैक) मांस ही मे (श्राद्धे) श्राद्ध में भोजन देना (च) और (पितृवर्गस्यतर्पणं) पितवर्ग के तर्पण को (प्राशिमारणम्) जीवों का घात-पात करना (मन्त्र-तन्त्रादि के कर्म) मन्त्र, तन्त्र आदि कर्म जो (कर्मबन्ध निबन्धन) दुष्ट कर्म बन्धन के कारण हैं, सब पढ़े ।
भावार्थ----सुर सुन्दरी तीव्र बुद्धिमती थी। किन्तु दुर्भाग्य से उसे गुरु मिथ्याष्टि, पापी, अधर्मी ब्राह्मण मिला । उस दुष्ट ने उस गोली कन्या को समस्त कुशास्त्रों का अध्ययन