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________________ १०२] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद कराया । वैदिक मत में निष्णात किया। यज्ञ यागादि में प्राणिबध करने से पाप नहीं होता। ये धर्म के अङ्ग है यज्ञ में बचे मांस, शराब को सेवन करने से पुण्य होता है । गाय की योनि में ३२ कोटि देवता वाम करते हैं उसकी पूजा अवश्य करनी चाहिए यज्ञ में घोड़ों को होमने से अश्वमेध यज्ञ होता है । इसी प्रकार मनुष्यों का ह्वन नरमेध बज है । गज-हाथी भैसा बकरा आदि से भी यज्ञ करना चाहिए । यज्ञ में हुने गये पशु व मनुष्यों को कष्ट नहीं होता क्योंकि मन्त्र पूर्वक उन्हें होमा जाता है वे सीध स्वर्ग जाते हैं। राज सुयादि यज्ञों के करने से सुख शान्ति होती है । नदी स्नान सागर की लहरे कासी, कर-वट प्रादि पुण्य के हेतु हैं धर्म के अन है। महिषादि की बलि चढाने से देवी देवता प्रसन्न होते हैं। मन्त्र तन्त्रादि से जीवों का पात करने से पितरों को तृप्ति और शान्ति मिलती है। इसी प्रकार अन्य भी हिंसा मार्ग का पोषण करने वाले शास्त्र पुराणों का उस राजकन्या मुर सुन्दरी ने अध्ययन किया जिससे वह ज्ञानमद से उन्मत सी हो गई । ये समस्त विधि-विधान घोर पापकर्म बन्ध के कारण धं। किन्तु उस पापी ब्राह्मण ने धर्म के हेतु बताये ।।५१-५४।। मिथ्याशास्त्रवशात्तत्र कुगुरोस्सेवनेन च । सुरादिसुन्दरीसात्र जाता धर्मपराड्.मुखा ॥५५।। अन्वयार्थ-(सा) वह (सुरादि सुन्दरी) मुर सुन्दरी (मिथ्या शास्त्र वशात्) खोटे मिथ्या शास्त्रों के पड़ने से (च) और (तत्र) उसी प्रकार (कुगुरोस्सेवनेन) खोटे गुरु के सेवन करने से (अत्र) इस समय (धर्मपराङ मुखा) धर्म से विमुख (जाता) हो गई। भावार्थ सुर सुन्दरी ने मिथ्यादृष्टि गुरू पाया उसके सान्निध्य में मिथ्या शास्त्रों का ही अध्ययन किया। फलत: वह कुगुरु की सेवा के प्रसाद से धर्म से विमुख हो गई अर्थात मिथ्या धर्मपोषक वन गई ।।५।। उन्मत्ता सा स्ववर्गण राजपुत्री. विशेषतः । कुशास्त्रेण तरामासीन्मर्कटीववलाशया ॥५६।। अन्वयार्थ-(विशेषतः) प्रायः करके (सा) वह सुर सुन्दरी (राजपुत्री) राज कन्या (स्ववर्गण) अपने परिवार से (उन्मत्ता) विमुख (जाता) हो गई । (कुशास्त्रेणतराम्) खोटे शास्त्रों के पढ़ने से नितान्त (बलाशया) बलवन्त हटग्राही (मर्कटीव) बंदरी के समान (आसीत्) थी। भावार्थ---वह राजकुमारी अपने खोटे मिथ्या विचारों से समस्त परिवार से विरुद्ध हो गई । दुराग्रह से नितान्त चपल वानरी के समान थी । अर्थात् बुद्धिविहीन चापल्य से वह तीव्र हठाग्रह वाली बन गई । वानरी स्वभाव से चपल होती है, फिर हाथ में दर्पण आ जाय तो कहना ही क्या ? इसी प्रकार-वह राजकन्या थी ।।५६।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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