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________________ [श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद तेन सार्द्ध पदायुद्धप्रकर्तुं निर्ययौ जवात । तदा क्षत्रियभार्याश्च स्नःस्वं नाथं जगुः किल ।।३२॥ जित्वा शत्रून हो स्वामिन हत मातङ्ग मस्तकात । महामुक्ताफलान्युच्चस्स्नं समानय मे प्रभो॥३३॥ अन्वयार्थ—वह वीरदमन (दापयित्वा) भेरी बजवा कर (मनमातङ्गमुत्तमम समारूह्य ) मदोमत्त श्रेष्ठ हाथी पर चढकर (चतुरङ्गबलोपेतः) चतुरङ्ग बल सहित (चामरादिबिभूतिभिः तेन सार्द्ध) चामरादि विभूतियों से युक्त-सहित (जवात्) शीघ्र (युद्धप्रक) युद्ध करने के लिये निर्ययो)निकल गया (तदा)तब (क्षत्रियभार्या: क्षत्रिय स्त्रियों ने स्वं स्वं नार्थ) अपने अपने स्वामी को (जगुः) कहा (अहो स्वामिन ) हे स्वामी (किल) निश्चय से (शशून् जित्वा) शत्रुओं को जीतकर (हतमातङ्ग मस्तकात ) मरे हुए हाथियों के मस्तक से (उच्चैः) श्रेष्ठ) महामुक्ताफलानि) महामुक्ताफलों मोतियों को (में) मेरे लिये (समानय ) लायो । ___ मावार्थ-वह बीरदमन राजा रणभेजो रजवाकर मदोन्मत्त श्रेष्ठ हाथी पर चढकर चतुरङ्ग बल (हाथी, घोडा, रथ, पयादे) साहंत चामरादि विभूतियों से युक्त शीघ्र युद्ध करने के लिये निकल गया। तब क्षत्रिय स्त्रियों ने अपने अपने पति-स्वामि से कहा कि हे प्रभो ! निश्चय से आप शत्रुओं को जीतकर मरे हुए हाथियों के मस्तक से श्रेष्ठ गजमुक्ताओं को लेकर आयो, अर्थात हमारे लिये गज मोती लाओ । इस प्रकार क्षत्रिय कुलवती स्त्रियों ने, अपने पति के विजय की मङ्गल कामना प्रगटकर, उनको मोत्साह बुद्ध के लिये विदा किया । ३ १से३३ काचिज्जगाद भो नाथ यशोराशिसमुज्वलम् । जित्वा रिपून सुधोया स्वं मे रत्नकदम्बकम् ॥३४॥ काचिदूचे प्रभो युद्धे निराकृत्य द्विषोभटान् । कोतिकान्त्या जगद्विश्यं कुर्याद चन्दयदज्ज्वलम् ॥३५॥ अन्वयार्थ-(काचित ) और भी किसी स्त्री ने (जगाद) कहा कि (भो नाथ) हे स्वामिन ! (यशोराशिसमुज्वलम) निमल यश रूप सम्पत्ति को प्राप्त कर (रिपून जित्वा) (शत्रुओं को जीतकर (सुधीः त्वम् ) उत्तम बुद्धि को धारण करने वाले तुम (मे) मुझे (रत्नकदम्बकम् ) रत्नराशि (देया) प्रदान करना (काचित ऊचे) किसो स्त्री ने कहा (प्रभो) हे स्वामिन पाप ! (युद्धे) युद्ध में (द्विषोभटान्) शत्रुपक्ष के योद्धाओं को (निराकृत्य) हराकर (चन्द्रवत उज्ज्वलम ) चन्द्रमा के समान धवल (कोतिकान्त्या) कीति रूपी कान्ति से (जगद् विश्वं कुर्याद्) सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करें। भावार्थ--किसी स्त्री ने युद्ध में जाते हुए अपने पति के प्रति मङ्गल कामना प्रकट करते हुए कहा कि आप निर्मल यश रूपी सम्पत्ति को प्राप्त करें। हे स्वामिन ! उत्तम बुद्धि को धारण करने वाले आप शत्रुओं को शीध्र जीतकर मुझे रत्न राशि प्रदान करें। किसी स्त्री
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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