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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद]
अन्वयार्थ---(नवद्) बजते हुए (वादित्रसद्ध्वनिः) बाद्यों की मधुरध्वनि से (मण्डितः) मण्डित (प्राबट्काल) वर्षाकालीन (घना: इव) बादलों के समान (उच्चः) अत्यन्तरूप से (वित्तजलः) धनरूपी जल से (जनान्) मनुष्यों को (सिञ्चन् सींचते हुए (चक्रवर्ती) चक्रवर्ती (इव) के समान, (परमानन्द) परम उत्कृष्ट आनन्द (निर्भरः) से भरे हुए थोपाल ने (अनुत्तरम् ) जिसके उत्तर में कहा न जाय ऐसा (तुङ्गम्) उच्च (सर्व) सवको (सिद्धिप्रदम् ) सिद्धि प्रदान करने वाले (ऊर्जयन्त गिरि) ऊर्जयन्त पर्वत (सिद्धिक्षेत्रम्) सिद्धक्षेत्र को (प्राप) प्राप्त किया ।।५०, ८१॥ भावार्थ-नाना प्रकार के वादिनी की मधुर
म हीयो । दुन्दुभि की ध्वनि ने पाबसकाल ही उपस्थित कर दिया । धनरूपी जल से जन-जन का सिंचन करते हुए अर्थात् किमिच्छक दान देता हुआ चक्रवर्ती के समान परमानन्द से भरा हुआ श्रीपाल महीपति अपनी नगरी की अोर चला जा रहा है । मार्ग में उसे परम पवित्र, उत्तुङ्ग शिखरों से शोभित, भव्य. जनों को सिद्धि प्रदान करने वाला ऊर्जयन्त (गढ गिरनार) निर्वाण क्षेत्र मिला । अर्थात् श्री नेमिश्वर जिन भगवान की निर्वाण भूमि गिरनार पर्वत पर पहुँचे । यह महापवित्र विशाल गिरि साक्षात् सिद्धस्वरूप ही आनन्द दाता है ।।८०, ८१।।
मुक्तिक्षेत्रमिवव्यक्तं भव्यानां सौख्यकारणम् । लसद्वनस्पति सार निर्भरायेस्समुज्यलम् ॥२॥ सर्वपापहरं सारं मुनोनामिव मानसम् । तं विलोक्य सुधीस्तत्र निधानं वा मुदं ययौ ॥८३॥ तं समारुह्य पूतात्मा सकान्तस्सपरिच्छदः ।। दृष्ट्वा नेमिजिनं तत्र सुरासुर सचितम् ।।४।। तत्र फाल्गुणमासे च सुधीराष्टान्हिकोत्सवे । अष्टोदिनानि दिव्यानि महोत्सव शतानिच ॥८॥ कृत्वा श्रीमज्जिनाधीश महास्नपन मुत्तमम् । पञ्चामृतप्रवाहैश्चविधाय विधिपूर्वकम् ॥८६॥ कप्रवासितैस्वच्छतोय सच्चन्दनाक्षतः । सुगन्ध कुसुमंदिव्यनवधः दुःखनाशनः ।।८७॥ रत्नक र सद्दीप कालागरू समुद्भवः नालिकेराम्रजम्बोर फलमुक्तिफलप्रदैः ॥८॥ श्रीमन्नेमिजिनेन्द्रस्य पादपनद्वयं मुदा । सम्पूज्य जगतांपूज्यं सोपचारः प्रियान्वितः ।।६।।