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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
अभाव हो जाता है। गुणस्थानातीत हो जाना ही मुक्ति है। अतः आत्मार्थी भव्य प्राणियों का कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, कर परिणाम मुद्धि करना चाहिए। यमित कपायों का क्षयकार आत्म विशुद्धि करते जाने से यथार्थ आत्मानुभूति प्राप्त होती है। प्रात्मदर्शन होता आत्मानुभव का यही मार्ग है। जब तक चित्त रूपी दर्पण पर कषायों का रङ्ग कालिमा रहेगी आत्मा का प्रतिविम्ब नहीं भन्नक सकता। उस कल्मष को दूर करने पर ही आत्मा स्वयं स्फटिक रत्न सम झलकने लगेगा । इसे पाने का उपाय क्या है। आचार्य कहते हैं ।
अष्टाङ्ग दर्शनं पूतं ज्ञानञ्चाष्टविधं तथा । त्रयोदश प्रकारञ्च चारित्रं मुनिसेवितम् ॥१५१॥ दशलाक्षणिक धर्म सजीव हितङ्करम् ।
एतेषांरुचि संयुक्तं गृहीणां धर्म माजगौ ॥१५२॥ अन्वयार्य -(पून) पवित्र (अष्टाङ्गदर्शनम् ) पाठ अङ्गसहित पवित्र सम्यग्दर्शन को (अष्टविध ज्ञानं च) पाठ अङ्ग भेद सहित सम्यग्ज्ञान को (च मुनि सेवितम्) और मुनियों के द्वारा सेवित (त्रयोदशाविधं चारित्रं) तेरह प्रकार के चारित्र को (सर्वजीवहितङ्करम्) सर्व जीवों का हित करने वाले (दश लाक्षणिकीधम्म) दश लक्षण रूम धर्म को (तथा) और (एतेषांरुचि संयुक्तं गृहीणां धर्म) इन मुनि धर्मों में रुचि रखने वाले गृहस्थों के धर्म को (अजी) जिनेन्द्र प्रभु ने कहा।
अर्थ-भगवान् ने बताया कि मुनिराजों को पाठ अङ्गों सहित सम्यग्दर्शन पाठ भेद वाला सम्यग्ज्ञान और तेरह प्रकार का चारित्र पालन करना चाहिए ।
भावार्थ -- सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग हैं।
१. निःशकित अङ्ग जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कथित तत्त्वों का ज्यों का त्यों श्रद्धान करना । अर्थात् तत्त्व ऐसा ही है, इतने ही हैं, इसी प्रकार आगम में वर्णित है ऐसा अटल श्रद्धान करना निशङ्कित अङ्ग है । इसमें अञ्जन चोर प्रसिद्ध हुआ था । ।
२. नि:कांक्षित अङ्ग. धर्मादि पुण्यवर्द्धक कार्यो, तपादि करने पर अागामी भोगों की वाञ्छा नहीं करना । ये विषय भोग नश्वर है । अन्त में दुख देने वाले हैं. परवश हैं पाप के बीज हैं इनकी इच्छा दुख का मूल है इस प्रकार भोगों की आकांक्षा का त्याग करना नि:कांक्षित अङ्ग है। इसमें अनन्तमती प्रसिद्ध हुयो ।
३. निविचिकित्सिताङ्ग-शरीर स्वभाव से अपवित्र है परन्तु रतन्त्रय धारण करने से यह पवित्र हो जाता है । इस प्रकार विचार कर साधु संतों मुनीन्द्रों के मलिन रुग्न शरीर में घणा नहीं करना निविचिकित्सा अङ्ग है । इसमें उछायन राजा प्रसिद्ध हुमा ।
४. अमष्टि अङ्क--मिथ्याष्टि देवी देवताओं के चमत्कारों से प्रभावित नहीं होना । सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति अकाट्य श्रद्धा रखना । खोटे--एकान्तवादी (सोनगढ़ी