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________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ] [ ३७३ बारह वर्ष (पू) पूर्ण होते होते ( महामण्डलेश्वर श्री सुखान्वितः ) महामण्डलेश्वर की राज सम्पदा से सुखानुभव करता हुआ ( तत्र ) बहाँ उज्जयिनी में ( समागत्य ) आकर ( नदा) तब ( प्रभुः ) प्रभुतासम्पन्न श्रीपाल ( भेरीनादशतः ) सकडा भेरी आदि वादियों के नाव से (उज्जैन्या) उज्जयिनी के (बहिर्देशम् ) वाह्य प्रदेश को ( सर्वत्र ) चारों ओर ( व्याप्य) घेरकर (संस्थितः ) ठहर गया । भावार्थ — श्रीपाल धर्मज्ञ नीतिज्ञ तथैव राज्यशासन कला मर्मज्ञ भी था । त्यागवैराग्यभाव उसके चिर साथी हो गये थे । सर्वत्र आतङ्क विहीन प्रेम और वात्सल्य द्वारा विजयी होता और सबका प्रियपात्र, आदरणीय बन जाता । अरिदमन को पराजित कर और वैरिदमन उसके छोटे भाई को स्वाधीन बना वृहद् सेना लेकर अबिलम्ब सौराष्ट्र से महाराष्ट्र देश में आ पहुँचा । यहाँ लीलामात्र में अनेकों राजाओं को जोत लिया। अपना स्वामी बना यहां के अधिपति अपने को धन्य समझे। वहां के राजाओं ने अप्सराओं से भी अधिक सुन्दरी, गुणमfear, पाँचौ कन्याएँ प्रदान की । श्रीपाल भूपाल ने विधिवत् पाणिग्रहण कर उन्हें स्वीकार किया । वह परम संयमी, व्रती और धर्मकार्यनिष्ठ था । मात्र लोक व्यवहार के लिए युद्धादि करता । अतः शीघ्र ही पुनः वह धीर-वीर रणकौतूहली गुजरात देश में आ धमका। अपने पुण्यप्रताप की किरणों का प्रसार कर वहाँ के राजाओं को जीता। उनकी सात कन्याओं का महान विभूति और उत्सवों सहित विवाहा । पुनः वह राजनीतिज्ञ दूरदर्शी महाराज श्रीपाल मेघपाटस्थ देश के राजाओं को वश किया। उनसे सम्मान और अनेकों भेटों के साथ दो सौ उत्तम शोलवन्ती कन्याएँ प्राप्त की अर्थात् उनके साथ पाणिग्रहण किया । तदनन्तर गुणभूषण उस भूप ने अपने उस प्रान्तीय प्रास-पास के राजाओं को वश किया। तथा उनकी ६६ छियाणव मनोहर गुणवती सुशील कन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया । इस प्रकार मार्ग में प्राप्त अनेकों राजाओं को पराजित कर उन्हें स्वाधीन बनाया, उनकी सुकुमारी अनि सुन्दरी कन्याओं को विधिवत् परणी । उनके द्वारा प्रदत्त अनेकों भेंट स्वीकार की । रत्न माणिक्य धन सम्पत्ति प्राप्त की । स्वयं भी उन्हें दान सम्मान प्रदान कर स्नेह पात्र बनाया। सर्वत्र प्रजा के साथ पुत्रवत् स्नेह रखता, सद्वान्धव समान प्रेम का व्यवहार करता। उनके द्वारा प्रदत्त अनेकों मत्तहस्ती, अश्व एवं अन्य धनादि को स्वीकार करता हुआ पद-पद पर अपनी प्रभुता और वात्सल्य का प्रसार करता हुआ जाता । सर्वत्र उदार हृदय से यथायोग्य श्रथिजनों को धनादि वितरण करता सन्तुष्ट मानस निर्विघ्न मार्ग पर वढने लगा। जिसके पास पुण्य है सुख, शान्ति, क्षेमकुशल उसके चरणों में स्वयमेव श्रा उपस्थित होते हैं । इस प्रकार बिना प्रयास के श्रीपाल अपने विशिष्ट पुण्योदय से प्राप्त चतुरङ्ग बल रथ, हाथी, घोडे-पयादे द्वारा अपनी आज्ञा का विस्तार करता हुआ, रूपलावण्य की खान, गुरणों की राशि रानियों सहित बारह वर्ष पूर्ण होतेहोते अर्थात् मात्र एक दिवस शेष रहने पर क्रमश: महामण्डलेश्वर समान श्री विभूति से विभू षित हो दल-बल के उज्जयिनी में जा पहुंचा। आठ हजार राजा इसकी आज्ञा शिरोधार्य करते, आठ चमर दुरते । यतः महामण्डलेश्वर हो गया । नाना भेरीनाद, सुमधुर वादित्रों की ध्वनि, नाना उत्सवों से संयुक्त श्रीपाल ने उज्जयिनी के बाहर प्रदेश में नगरी को चारों ओर से व्याप्त कर लिया अर्थात् घेरा डाल कर स्थित हुआ ।।६८ से १०७ ।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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