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________________ ३६२] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद सिंहस्यापि सुधीरस्ति जेता चाष्टापदः क्षितौ । घनाधनलवो भानोः प्रभाप्रच्छादनक्षमः ॥१५७।। अन्वयार्थ--(सुधो:) हे श्रेष्ठ बुद्धि के धारो ! (क्षितौ) पृथ्वी पर (सिंहस्य) सिंह को (अपि) भी (जेता) जीतने वाला (अष्टापदः च) अष्टापद होता है (भानो:) सूर्य की (प्रभाप्रच्छादनक्षम:) प्रभा को ढकने में समर्थ (घनाघनलवो) जलकरणों से युक्त बादल होते हैं । मावार्थ--पुनः वह मंत्री राजा के अहंकार भाव को मिटाने के लिये दृष्टान्त देते हुए कहता है कि लोक में सिंह यद्यपि बहुत बलिष्ठ होता है पर उसको भी जीतने वाला अष्टापद है । जिस प्रकार सूर्य अप्रतिम तेज को धारण करने वाला महाप्रतापशाली है पर सघन बादलों से उस सूर्य का प्रकाश भो ढक जाता है अत: आपको अपने बल का अहंकार नहीं करना चाहिये ||१५७।। अयं सूरस्समायातो महाबलसमन्वितः । प्रताप िजतारातिः श्रीपालः श्रूयतेप्रभु ॥१५८।। पुरीते वेष्टिता येन महासन्येन भूपते । अकस्मादत्र चागत्य न सामान्यस्सभूतले ।।१५६ । । अन्ययार्थ-(प्रतापनि जतारातिः) प्रताप शील शत्रुओं को भी जिसने जीत लिया है ऐसा (प्रभुः धीपाल:) राजा श्रीपाल है (श्रूयते) सुना जाता है कि (अयम, सूरः) यह शूरवार (महाबलसमन्वितः) विशाल सैन्यदल के साथ (समायातो) पाया हुआ है। (भूपते ! ) हे राजन् (येन महासन्येन) जिस महान सेना के द्वारा (ते पुरी) तुम्हारी नगरी (वेष्टिता) घेर ली गई है। (अकस्मात् अत्र आगत्य च) और अकस्मात् यहाँ प्राकर (स) नगरी को घेरने दाला वह (सामान्यः न) सामान्य पुरुष नहीं हो सकता है । भावार्थ-मंत्री राजा से कहता है कि हे राजन् मैंने सुना है कि प्रतापगाली बलिष्ठ शत्रुओं को भी जीतने वाले शूरवीर श्रीपाल अपनी विशाल सेना के साथ यहाँ पाये हुए है उन्होंने आपकी नगरी को चारो ओर से घेर लिया है । अचानक यहाँ आकर इस प्रकार निर्भय होकर अपने सैन्यदल से नगरो को वेष्टित करने वाला सामान्य पुरुष नहीं हो सकता है। तस्मात् त्वयाराज्यरक्षार्थ त्यक्त्वागवं च दुःखदम् । सेवनीयो महानेषः श्रीपालः प्रभरुत्तमः ॥१६॥ अन्वयार्थ (तस्मात् ) इसलिये (राज्य रक्षार्थ ) राज्य की रक्षा के लिये (त्वया) तुम्हारे द्वारा (दुःखदम् गर्व च त्यक्त्वा) दुःखदायी अहंकार को छोड़कर (प्रभुरुत्तमः) राजाओं मैं श्रेष्ठ (एष:महान्) यह महान् (श्रीपाल:) श्रीपाल (सेवनीयो) से बने योग्य है।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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