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________________ श्रोपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ] [३६१ (मन्त्रिभिः बोधित:) मन्त्रियों के द्वारा इस प्रकार संबोधित किया गया-(प्रभो ! देव!) हे प्रभु ! हे स्वामी (त्वया) तुम्हें, तुम्हारे द्वारा (गर्व:) अहंकार (नैव) निश्चय से नहीं (कर्तव्यों) करना चाहिये (देव ! ) हे स्वामो ! (स्वात्मनाशकृत) अपनी आत्मा का घात करने बाला {धर्मध्नः) धर्मनाशक (क्रोधो) क्रोध (नकर्तव्यो) नहीं करना चाहिये। भावार्थ----पुन: अहंकार से भरा हुआ यह कहने लगा कि जुगुनुओं के प्रकाश से सूर्य का प्रकाश कभी आच्छादित नहीं होता है अतः क्षीणशक्ति बाला पराक्रम हीन वह श्रीपाल मेरे साथ क्या युद्ध करेगा ? मुझे तिरस्कृत करने का उसका जो मिथ्या दम्भ है, अहंकार है उसका दुष्फल उसे युद्धस्थल में ही भोगना पड़ेगा मैं उसके पराक्रम को युद्धस्थल में ही देखू गा तदनतर इस प्रकार क्रोधावेश में बोलते हए उस प्रजापाल को देखकर मंत्रियों को चिन्ता हुई। यों को श्रीपाल का पराक्रम ज्ञात था. वे जानते थे कि यह, श्रीपाल को कभी नहीं जीत सकता है यह कोटिभट श्रीपाल महापुण्यशाली है उसको जीतना सर्वथा अशक्य है । मंत्री बारवार प्रजापाल को सम्बोधित करते हैं कि हे स्वामिन् ! आप मिथ्या अहंकार न करें, विवेक से काम लें । कोष से स्वात्मघात के साथ साथ धर्म का भी नाश होता है अत: क्रोध न करें। श्रोध ही इस जीव का सबसे बड़ा शत्रु है । दूरदर्शिता, गम्भीरता और विवेकशीलता ही श्रेष्ठ राजाओं के चिन्ह है। आप इस समय क्रोध को छोड़कर यथार्थ परिस्थिति को समझने का प्रयत्न कीगि बलवानहमत्रेति न वक्तव्यं क्वचित तथा । यतो बलवता मध्ये स्युर्महाबलिनोद्भुताः ॥१५५।। संसारे सन्ति भो राजन् महान्तो महतामपि । चनियोऽपि मतद्वेषी यथाभूभुजविक्रमी ।।१५६॥ अन्वयार्य-(तथा) तथा (अत्र यहाँ, इस लोक में (अहम ) मैं (बलवान्) बलवान हूँ (इति) ऐसा (क्वचित्) कभी (न बक्तव्यम् ) नहीं बोलना प्राहिये। (भो राजन्) हे राजन् (संसारे) संसार में (महतामपि) महान् बलिष्ठों में भी (महान्त:) महान् बलिष्ठ (सन्ति) हैं (भुजविक्रमी) हे भुजविक्रमी ! (यथा) जिस प्रकार (चक्रिणोमतद्वेषी) चक्री अर्थात् चक्रवर्ती के मत से भी द्वेष करने वाले (अपि) भी (सन्ति) होते हैं । भावार्थ-मंत्री राजा को संबोधित करते हुए कहता है कि हे राजन् ! आप यह न समझना कि संसार में सबसे अधिक बलिष्ठ मैं ही हूँ क्योंकि बलवानों में भी बलवान अथवा महानों में भी महान पुरुष संसार में विद्यमान हैं। हे भुज विक्रमी ! देखो, चक्रवर्ती षट्खण्ड का अधिपति होता है किन्तु उससे भी द्वेष रखने वाले शत्रु संसार में होते ही हैं यथा भरत चक्रवर्ती का मान बाहुवलो से खंडित हुआ । जब चक्रवर्ती के भी विरोधी हो सकते हैं तब तुम्हारी क्या बात ? अत: अपने बल का अहंकार करना व्यर्थ है ॥१५५ १५६।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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