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________________ १७४ ] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ—(तीर्थेशाम् ) धर्मतीर्थ के नायक श्रीतीर्थकर जिनदेव का (अभिषेचनात्) अभिषेक करने से (जीवा:) मनुष्यों का (सादरम्) आदर से (सुरवरैः) देवेन्द्रादि द्वारा (संस्नाप्यते) स्नान कराया जाता है, (पूजनैः) पूजने से (वर) श्रेष्ठ (संपूज्य) पूज्य, (स्तवनतः) स्तुति करने से (स्तुत्य:) स्तुतियोग्य (भवेद) होता है, (धामिकः) धर्मात्मानों से (जपनेन) भगवान का जप करने से वे (संजप्यः) जपनोय होते हैं (निमलधियां) पवित्र बुद्धि से (सदा व्यानतः) ध्यान करने से (ध्येयः) ध्येय हो जाता है, (श्रोजिनबोधत:) श्री जिनज्ञान से (गुणनिधिः) गुणों का भाण्डार (प्रान्ते) अन्त में (केवली) केवलज्ञानी (भवेत्) होता है। भावार्थ---जो जिनेन्द्र भगवान का भक्तिभाव से पञ्चामृताभिषेक करते हैं वे सुरासुरेन्द्रों द्वारा अभिषिक्त किये जाते हैं । अर्थात् उनका देव इन्द्र 'अभिषेक करते हैं । अभिप्राय यह है कि वे भी तीर्थङ्कर पद पाते हैं 1 जो भगवान की पूजा करते हैं, वे स्वयं पूज्य हो जाते हैं। स्तवन करने से स्तुत्य-स्तुति के योग्य हो जाता है। जो जिनप्रभ का ध्यान करता है वह ध्येय बन जाता है । जप करने से स्वयं जपनीय हो जाता है, भगवान के स्वरूप को जानने वाले ज्ञानी होते हैं और पुनः केवली भगवान हो जाता है ।1७०।। श्रावक का अन्तिम कर्तव्य कहते हैं - अन्ते सल्लेखनाकार्या जनतत्वविदाम्बरः । अनन्यशरणीभूतः श्रित्वा श्रीपरमेष्ठिनः ॥७१॥ त्यक्त्वा मोहादिकं नन्थं क्षमां कृत्वा च जन्तुषु । रागद्वेषं परित्यज्य, शुद्धात्मध्यान तत्परः ।।७२॥ अन्वयार्थ:-(जैनतत्त्वविदाम्बरः) जन तत्त्व के ज्ञाता (अनन्य शरणीभूत:) अनन्यशरण होने वाले (श्रीपरमेष्ठिन:) श्रीपञ्चपरमेष्ठी का (श्रित्वा) आश्रय लेकर (अन्ते) आयु के अन्त में (सल्लेखना) समाधि (कार्या) करना चाहिए । (शुद्धात्मध्यानतत्परैः) शुद्ध पारमध्यान में तत्पर रहने वाले (मोहादिकम् मोह-मिथ्यात्व आदि (ग्रन्थम ) परिग्रह को (त्यक्त्वा) त्यागकर, (जन्तुषु) प्राणियों कोजीवमात्र को (क्षमा) क्षमा(कृत्वा) करके (च) और (रागद्वेषम् ) राग द्वेष को (परत्यज्य) छोडकर (सल्लेखना कार्या) समाधि करना चाहिए। भावार्थ:-जो दान पूजा में रत रहने वाले, जैन तत्त्व के जानने वाले हैं तथा "एकमात्र पञ्चपरमेष्ठी ही शरण हैं" इस प्रकार का अटल विश्वास रखने वाले हैं उनके द्वारा आयु के अवसान समय में विधिवत् समाधिमरण करना चाहिए । अर्थात् आर्त-रौद्र दुानों का
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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