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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
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भावार्थ - श्रावक धर्म में प्रधानतः दो बातों की मुख्यता दी है दान और पूजा । किन्तु इनका करने वाला शीलाचार, त्यागभावी, सदाचारी करुणावान ही हो सकता है । अतः आचार्य श्री ने यहाँ इसी बात का संकेत किया है साधुओं को पात्रों को दान दाता व्यभिचारी, farar विवाह या विजाति विवाह करने वाला अथवा श्रधम नीचवृत्ति कठोर निर्दयी भी नहीं होना चाहिए यह स्पष्ट ध्वनित होता है ।
पात्र तीन प्रकार के हैं - : ( १ ) निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिराज उत्तम पात्र हैं, श्राविका माता जी भी उपचार महाव्रती होने से उत्तम पात्र ही हैं । २. क्षुल्लक क्षुल्लिका, व्रती श्रावक श्राविका मध्यम पात्र है और ३. जघन्य पात्र व्रती श्रावक हैं । इनको यथा योग्य चारों प्रकार का दान देना श्रावक धर्म हैं । पानों परमेष्ठियों की अष्ट द्रव्य से अभिषेक पूर्वक पूजन करना श्रावक धर्म है । यथा शक्ति शौल धर्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना अर्थात् पर पुरुष और पर स्त्री का सर्वथा आजन्म त्याग करना । स्वदार-संतोष व्रत पालना । अष्टमी, चतुर्दशी, दशलक्षण-पण आन्हिकादि पर्वो में यथा शक्ति उपवासादि करना, दया भाव रखना, पर के उपकार की भावना रखना यह सब श्रावक धर्म है ।
इत्येवं सर्ववित्सर्वं लोकालोक स्वरूपकम् । द्योतया मास भव्यानां स्वामी सर्वहितङ्कर ।। १५४॥
श्रन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार ( सर्ववित्) सर्वज्ञ सर्वहितङ्करः प्राणीमात्र के हितैषी (स्वामी) महावीर भगवान् ने ( एवं ) उपर्युक्त प्रकार धर्मादि ( लोकालोकं का स्वरूप सर्वम्) सम्पुर्ण रूप से ( भव्यानाम् ) भव्य जीवों को ( द्योतयामास ) प्रकट किया - दर्शाया ।
सरलार्थ - संसार का हित करने वाले सर्वज्ञ भगवान् महावीर स्वामी ने उभय धर्म का स्वरूप संसार के भव्य जीवों को स्पष्ट रूप से समझाया । तथा लोकालोक स्वरूप भी निरूपित किया |
श्रुत्वा वीर जिनेन्द्रस्य वन स्वर्गापवर्गदम् । द्वावृशोक सभा भव्याः विकसन्मुखपङ्कजा ।। १५५।।
प्रास्ते परमानन्वं कवियाचामगोचरम् । सत्यं जिनोदितं वाक्यं कस्य सौख्यं करोति न ॥ १५६ ॥
अन्वयार्थ – (वीर जिनेन्द्रस्य) वीर प्रभु की ( स्वर्गापवर्गदम् ) स्वर्ग और मोक्ष को
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देने वाली (ध्वनि श्रुत्वा ) ध्वनि को सुनकर ( विकसन्मुखपङ्कजाः) खिलते हुए मुख कमल वाले ( उरु) विशाल ( द्वादश सभाते भव्याः ) बारह सभा के भव्यजीव (कविवाचामगोचरम् परमानन्द ) कवियों के वचन के अगोचर परमानन्द को ( प्रापुः ) प्राप्त हुए ( सत्यं ) सत्य ही है कि (जिनोदितं वाक्यं ) जिनेन्द्र भगवान के वचनामृत ( कस्य ) किसके ( सौख्यं ) सुख को ( करोतिन) नहीं करते ? अर्थात् करते ही हैं ।