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श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद ]
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जघन्य रूप में उत्तम रीति से करे । श्रीजिनेन्द्र भगवान व श्री सिद्धचक्र समूह का स्तोत्रमात्र भी जगत् का हितकरने वाला अपूर्व धर्म है अतः स्वभावतः दुःखनाशक सुखकारक, आत्मशोषक स्तोत्रादि सतत करना चाहिए। यह परम्परा से विपुल सौख्य प्रदान करता है। यदि उद्यापन
सर्वा ही शक्ति न हो तो द्विगुण- अर्थात् चौबीस वर्ष पर्यन्त व्रत करना चाहिए । यह श्री सिद्धच व्रत सर्वथा सुखदायी है, भव्य प्राणियों को श्रद्धा भक्ति से यथाशक्ति करना चाहिए ।।६३ से १०२ ।।
देवेन्द्रादिपदं यस्माद्भव्या सम्प्राप्य निर्मलम् ।
लभन्ते शाश्वतं स्थानं सद्भुत प्रतिपालनात् ॥ १०३ ॥
अन्वयार्थ -- ( यस्मात् ) इस ( सलम) उत्तम व्रत को ( प्रतिपालनात् ) प्रतिपालन करने से (निर्मलम . ) पवित्र निर्दोष ( देवेन्द्रादिपदम् ) इन्द्र चक्रवर्ती यादि पदों को (सम्प्राप्य ) प्राप्त कर ( भव्याः ) भव्यजन ( प्रशाश्वतम् ) स्थायी (स्थानम् ) स्थान को ( लभन्ते ) प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ इस सिद्धचक्र महाविधान का अद्भुत माहात्म्य है । यह सर्वोत्तम व्रत उत्कृष्ट, मध्यम और वन्य रीति से विधिवत् पालन करने पर इन्द्र, चक्रवर्ती, धरणेन्द्रादि उत्तम पदों को प्राप्त कराकर अक्षय अविनाशी सुखस्थान मुक्ति में पहुँचा देता है । अर्थात् भव्य श्रावक-श्राविका इस श्रेष्ठतम व्रत के प्रभाव से लौकिक सर्वोत्तम सुखों को भोगकर परमपद मुक्तिपद को भी प्राप्त करते हैं ।। १०३ ॥
व्रतेनतेन भो राजन् सिद्धचक्रस्य भूतले ।
अनन्तास्ते शिव प्राप्ताः प्रयास्यन्ति च भूरिशः ।। १०४ ॥
ततो भव्यैषु स पूत' समाराध्यमिदं शुभम् ।
शक्तितो भक्तितो नित्य ं स्वर्गमोक्षसुखप्रदम् ॥१०५॥ नन्दीश्वर विधानस्य महिमा भुवनातिगः ।
वरितु शक्यते नैव फणीन्द्राद्यैरपि प्रभो ।। १०६॥
एवं श्रीवरदत्तास्य मुनीन्द्रेण सुखाकरम् । व्रतं सिद्धचक्रस्य प्रोक्तं श्रुत्वा तदा हि तम् ॥१०७॥
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अन्वयार्थ - ( भो ) है ( राजन् ) नृपते ! (एतेन ) इस (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र के
( व्रतेन ) व्रत से ( भूतले ) पृथ्वीतल पर ( अनन्ता: ) अनन्तों (शिवम ) मोक्ष ( प्राप्ताः ) हो गये (च ) और ( भूरिशः) बहुत से (ते) वे व्रती ( प्रयास्यन्ति ) प्राप्त होंवेगे । (ततः) इसलिए (भव्यैः ) भव्यों द्वारा (घृतम् ) धारण किया गया (इदम्) यह ( पूतम् ) पवित्र ( शुभम् ) शुभ व्रत ( नित्यम ) नित्य ही ( स्वर्गमोक्षसुखप्रदम् ) स्वर्ग और मोक्ष सुख देने वाला (मक्तितः )