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[ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद
भोर (धूपस्य ) धुप खेने के ( दहनानि ) बूषदान ( उच्चैः ) विशाल ( श्रासनानि ) आसन, पाटा चटाई यदि प्रत्येक ( पृथक्-पृथक् ) भिन्न-भिन्न ( द्वादश प्रमारणानि ) बारह-बारह संख्या में (जिनमन्दिरे) जिनालय में ( दीयन्ते) देना ( जैन सिद्धान्तसिद्धये ) जैन सिद्धान्त का पारगामी होने के लिए ( मुनिभ्यः ) मुनियों के लिए ( उच्चैः) उत्तम ( पुस्तकानि ) शास्त्र ( तथा ) इसी प्रकार (शर्मणे ) शान्ति के लिए ( उत्कृष्ट) उत्तम ( कमण्डलुः ) कमण्डलु (पिच्छिकादीनि ) पिच्छी आदि (तथा) एवं ( कालानुसारेण ) समयानुसार (विशेषतः ) विशेष रूप से ( प्रायिकाम्यो ) अजिंका माताओं को ( न पीतानि) पीत नहीं अपितु ( पवित्राणि ) शुद्ध लज्जा निवारण योग्य ( शरणे ) शान्ति के लिए (च) और ( ब्रह्मचारिभ्य) ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणियों को भी यथायोग्य (सारसूक्ष्माणि) अनुकूल योग्य सूक्ष्म (वस्त्राणि ) वस्त्र ( दीयते) देना चाहिए। (च) और ( महाविनय पूर्वकम् ) अत्यन्त नम्रता से ( श्रावक-श्राविकानाम ) श्रावक और श्राविकाओं को ( महाभोज्यम) वृहदभोज ( भोजयित्वा ) कराकर ( वस्त्र, ताम्बूल, चन्दनः ) वस्त्र, पान, चन्दनादि द्वारा ( तेषाम) उनका ( सम्माननम् ) सन्मान (च) और ( याचकानाम ) याचकजनों को तर्पणम ( कृत्वा) करके (एवम ) इस प्रकार ( कृत्वा) सर्वविधि करके (उद्योतम) उद्यापन ( विधातव्यम् ) करना चाहिए। ( जिनशासने ) जिनागम में ( इदम ) यह ( शुभम . ) शुभ ( उद्यापनम ) उद्यापन विधि ( उत्कृष्टेन ) उत्कृष्ट रूप से ( समादिष्टम ) कहा है (शान्तिकान्तिकम् ) शान्ति और कान्ति देने वाले ( उत्तमम) उत्तम उद्यापन व व्रत hi (यथाशक्ति ) शक्ति अनुसार ( कर्त्तव्यम् ) करना चाहिए (च) और ( स्वभावेन) स्वभाव से (जगद्धितः) जगत का हितकारक ( धर्मः ) धर्म (स्तोत्रेणापि ) स्तुतिमात्र भी ( कृतः ) किया गया (अपि) भी ( विपुलम् ) महान ( सौख्यम् ) सुख को ( करोति) करता है ( तस्मात् ) इसलिए (तत्) वह (सदा ) हमेशा ( क्रियते ) किया जाता है ( सर्वथा ) पूर्णतः ही ( शक्तिः ) योग्यता उद्यापन की शक्ति (नोभवत्) नहीं होवे तो ( तदा ) तब ( सर्वथा ) ( पूर्णतः ) पूर्णरूप से (सुखकारणम ) सुख के हेतु (श्रीसिद्धचक्रस्यत्रतम् ) श्रीसिद्धच व्रत को ( द्विगुणम्) दूदा (भाचरेत् ) करे |
भावार्थ-नेक प्रकार के शुभ्र वस्त्र धोती, दुपट्टा, सूती, रेशमी (शुद्ध रेशम) चीनपट्ट आदि, अनेक प्रकार के घण्टा, झांझ, मंजीरा करतालादि चढावे, झालर, बँवर, कलश, धर्मचक्र, भारी, पीठ, स्वास्तिक, चंदोबा प्रधान रूप से बंधवावे, धूपदानी, उच्चासन चौकी, पाटा, वाजोटा, प्रदि उपकरण भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रत्येक बारह-बारह चढाना चाहिए | जिनालय में चढाने को देना चाहिए। इसी प्रकार मुनिराजों को जैन सिद्धान्त की सिद्धि के लिए शास्त्र दान देना चाहिये । समयानुसार उन्हें सुखकारी पिच्छी तथा कमण्डलु प्रदान करना चाहिए | आर्थिकामाताजी एवं क्षुल्लिका माताओं को उनके योग्य शुद्ध, शुभ्र, सूक्ष्म साडी, चादर श्रादि सफेद वस्त्र प्रदान करना चाहिए। इसी प्रकार ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियों को उनकी योग्यतानुसार पोत व शुभ्र वस्त्रादि से सम्मानित करे । सुखदायक, लज्जानिवारक वस्त्र देने से धर्मध्यान की वृद्धि होती है । महाविनय से श्रावक-श्राविकाओं को नानाविधि प्रीतिभोज देना चाहिए। जीमन कराकर, पान, इलायची, सुपारी, सौंफ आदि प्रदान कर चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य देवे । इसप्रकार उनका यथोचित सम्मान कर पुनः याचकों को तृप्तिकारकं भोजन-वस्त्रादि दान करे। इसप्रकार उद्यापन करना जिनागम में उत्कृष्ट विधि कही गई है । शान्ति कान्ति प्रदायक उद्यापन करने की इतनी शक्ति न हो तो यथाशक्ति मध्यम व