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________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [१५७ ये हरन्ति परद्रव्यं लोभग्रहवशीकृताः । तहताश्च परप्राणा, परंपुत्रि किमुच्यते ॥२५॥ अन्वयार्थ--(ये) जो (लोभगृह) लोभरूपी पिशाच से (वशीकृता) वशीभूत हुए (परद्रव्यं) दूसरे के द्रव्य को (हरन्ति) हरण करते हैं (पुत्रि) हे पुत्रि ! (ते.) उनके द्वारा (परप्राणा) दूसरों के प्राण ही (हृताः) हरे गये (च) और (परम्) इससे अधिक (किम्) क्या (उच्यते) कहा जाय ? अर्थात कुछ नहीं । भावार्थ--जो मनुष्य लोभरूपी ग्रह के वश होकर दूसरे धन अपहरण करते हैं वे नियम से उनके प्राणों का संहार करते हैं । आचार्य कहते हैं हे पुत्रि मदनसुन्दरि ! हम अधिक क्या कहें ? चोरी करने वाला हत्यारा है ॥२५॥ स्तेयं पापचयः प्रवन्धनहरं, लज्जाकरं दुःकरम् । कीति स्फीतिहरं कुलक्षयकर, निरिणसम्पद्हरम् ॥ ये भव्याः परिवर्जयन्ति नितरां, संतोषलक्ष्मीयुताः । ते प्राप्यत्रिदशादि सौख्यमतुलं, नित्यं लभन्ते सुखम् ॥२६॥ अन्वयार्थ... (स्तेयं) चोरी (पापचयः) पापसंचय करने वाली, (प्रबन्धनहरम् ) (दु:करम् ) अत्यन्त (लज्जाकरम् ) लल्जा करने वाली (कीति स्फीति) यश के विस्तार को (हरम् ) हरने वाली, (कुलक्षयकरम् ) कुल की नाशक, (निर्वाणसम्पद्) मोक्ष लक्ष्मी को (हरम ) चुराने वाली है ऐसी चोरी पाप को (ये) जो (भच्याः) भव्य जन (संतोषलक्ष्मीयुताः) संतोष रूप लक्ष्मीधारी (नितराम) पूर्णत. (त्यजन्ति) त्याग देते हैं (ते) बे भव्यप्राणी (नित्यं ) नित्य ही (त्रिदशादि) देवादि के (सौस्वम ) सुख को (प्राप्य) प्राप्तकर (अतुलम ) अपरिमित मोक्ष (मुखम् ) सुख को (लभन्ते प्राप्त करते हैं। भावार्थ-चोरी करना महापाप है । इससे पाप का ही संचय होता है, योग्यता का नाश होता है, लज्जा की उत्पत्ति होती है, दुष्कर्म प्राप्त होता है, यश का विस्तार संकुचित हो जाता है । कुल का क्षय होता है । निर्वाण रूपी लक्ष्मी दूर भागती है। जो भव्यजीव इस महापाप का परित्याग करते हैं, संतोषधन धारण करते हैं, लोभ का परिहार करते हैं वे नियम से स्वर्गादि की प्रभूत लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं । पुन: क्रमशः अपरिमित निर्वाण लक्ष्मी के अनन्तकाल तक भोक्ता होते हैं। इस प्रकार अदल द्रव्य कभी भी किसी प्रकार भी स्वीकार नहीं करना चाहिए । चोरी का त्याग धर्म है और सुख का निमित्त कारण है । "इति अचौर्याण प्रत वर्णनम् । अब ब्रह्मचर्याण व्रत का वर्णन करते हैं - यत्परस्त्री परित्यागो, मनोवाक्काय शुद्धितः । संतोषो निजभार्यायां स्यात्तुर्य तदण व्रतम् ॥२७॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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