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________________ १५६] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अथ अचौर्य व्रत निरूपणम् स्तेयंपापप्रज्ञेयं, हेयं सद्धिः सुखाथिभिः । यतो भव्या भवन्त्युच्चैनिधीनां पतयः क्रमात् ।।२२।। अन्वयार्थ-(सुखाथिभिः) सुख चाहने वाले (सद्भिः) सज्जनों द्वारा (स्तेयम् ) चोरी (हेयं) त्याज्य (पपप्रदम्) पापदायिनी (ज्ञयम्) जानना चाहिए (यतः) इस प्रकार जानने से (भव्याः) भव्यजन (क्रमात्) क्रमशः (उच्चैः) महान (निधीनाम् ) निधियों का (पतयः) स्वामी (भवन्ति) होते हैं। भावार्थ-जो भव्यात्मा परधन गृहण को हेय समझते हैं अर्थात् विना दी हुयी वस्तु को जो ग्रहरण नहीं करते । चोरो समझते हैं । पाप का कारण मानते हैं। वे भव्यप्राणी अनुक्रम से नवनिधियों, चौदहनों के अधिपति होते हैं ।।२२॥ स्थापितं पतितं चापि परद्रव्यं सुविस्मृतम् । श्रयसं चार पहिया वदम् ॥१३॥ अन्वयाय - (यत्) जो (परद्रव्यम् दूसरे का द्रव्य (स्थापितम्) रक्खा हुआ (पतितम्) गिरा हुआ (च) और (सुविस्मृतम) भूला हुआ (अपि) भी है वह (अदत्त) नहीं दिया (अग्राह्यम् ) लेने योग्य नहीं है (न लेना) (तृतीयम् ) तीसरा (अण व्रतम्) अण व्रत है। भावार्थ-किसी की रक्खी हुयी वस्तु, गिरा हुमा पदार्थ अथवा भूला हुआ परद्रव्य है उसे बिना दिये नहीं लेना तीसरा (अदत्तग्रहण नहीं करना) अस्तेय व्रत है । यही अचौर्यव्रत है । श्रावक का अचौर्याण व्रत कहलाता है ।।२३।। बाह्यप्राणा धनान्युच्चर्जनानामिति निश्चयात् । ततो क्यापरैनित्यं तत्त्याज्यं धर्महेतवे ॥२४॥ ) अन्ययार्य--(धनानि) धन-सम्पत्ति (उच्नैः) विशेष रूप से (जनानाम्) प्राणियों के (वाह्यप्राणा) बाहरी प्राण हैं (इति) इस प्रकार के (निश्चयात् ) निश्चय से (दयापरः) दयालुओं द्वारा (ततः) इसलिए (तत्) बह परधन (नित्यम् ) निरन्तर (धर्महेतवे) धर्म के लिए (त्याज्यम्) त्यागने योग्य है । भावार्थ-संसार में धन को ११ वा वाह्य प्राण कहा है। आगम में जीव के १० प्राण हैं जिनके द्वारा वह “जीता है" यह व्यवहार होता है । परन्तु धन-वैभव को ११ वाँ प्राण माना हैं क्योंकि धन के वियोग में कितनों की प्राण हानि देखी जाती है। जिसका धन चोरी जाता है उसके प्राणनाश होने के समान पाप होता है । इसलिए दयालुजनों को परधन सर्वथा त्यागने योग्य है। दूसरे के प्राणों का रक्षण करना धर्म है । अत: पर धन की रक्षा भी धर्म है । प्रस्तु धर्म रक्षार्थ परधन का त्याग करना चाहिए ।।२४।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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