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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
(१) सन्धि-जिस समय राजा अपने शत्रु को अपने से अधिक बलवान ज्ञात कर लेता है । युद्ध में विजय की अपेक्षा सैनिकों के संहार और असफलता का आभास मिल जाता है तो सुभटों और स्वयं की तथा राज्य की क्षति का विचार कर उसके साथ प्रीति-मेल स्थापित कर लेता है, इस समझौते का नाम सन्धि है।
(२) विग्रह-परस्पर विरोध करना विग्रह है। कोई भी राजा अहंकारवश अपने प्रभुत्व में अन्य राजा पर आक्रमण करता है। उसे अपने आधीन करना चाहता है । युद्ध के लिये उसे आमन्त्रित करता है इस विग्रह कहते हैं।
(३) यान -सवारी को यान कहते हैं। रथ, हस्ती, अश्व, सिंहादि पान कहलाते हैं। वाहन के अभाव में राजा अपनी वा अपने राज्य की सुरक्षा नहीं कर सकता राज्य रक्षण के लिये योग्य सवारी साधन रहना प.मावश्यक है।
(४) प्रासन–राज सभा आदि स्थानों पर बैठने के लिये विशेष-स्थान विशेष आसन कहलाते हैं । अर्थात् योग्य सम्मान प्रदान के साधन को आसन कहते हैं। किसी भी व्यक्ति के आने जाने पर उचित-योग्य आसन प्रदान करने से प्रोति और न देने से देष विदित होता है। यह भी एक दूसरे के अभिप्राय वो अवगत करने का साधन होता है अतः राज्य का विशेष अङ्ग माना जाता है।
(५) संश्रय-आश्रय प्रदान करना । राजाओं के लिये यह महान उपाय है । जिस समय कोई विरोधी राजा शत्रु दल का आकर अपने में मिलना चाहे तो बुद्धिमान राजा गण उसे अपने दल में आश्रय देकर अपनी शक्ति को बढ़ा लेते हैं और सरलता से शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । यथा रामचन्द्र महाराज ने शरणागत विभीषण, सुग्रीवादि को आश्रय देकर अपना सैन्यदल विशाल और सुबह बना लिया और सरलता से लवाधिपति रावण को पराजित कर अपना कार्य सिद्ध कर लिया।
(६) द्वधीभाव-विरोध डालकर-फूट पदाकर शत्रु को कमजोर बना देना शक्ति विहीन कर उस पर विजय प्राप्त करना, द्वैधी भाव है। कोई राजा बलिष्ठ है तो उसके अनुयायियों में किसी प्रकार विरोध कर फोड़ कर देना, लोभादि से वश करना और शत्रुबल को क्षीण कर देना द्वैधी भाव है।
राजनीति एक पेचीदा राग है । इसमें समयानुसार दावपेर्च चलाने पड़ते हैं। न्याय अन्याय, प्रेमविरोध, सन्धि विग्रह आदि नाना प्रकार के प्रयत्नों से अपने राज्य को समृद्ध बनाने का प्रयत्न किया जाता है । अतः संक्षेप में उपर्युक्त छह अंगों का ज्ञान और ध्यान राजाओं को रखना चाहिए । महामण्डलेश्वर महाराज श्रेणिक में ये छहों नीतियाँ विद्यमान थीं ।।७३।।
तैश्चराजगूरणैः षड्भिः, राजा राजीवलोचनः । स रेजे मुनिनाथो वा षडावश्यक-कर्मभिः ।।७४॥